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अरब और पश्चिम एशिया के कई देशों में बदलाव की आंधी चल रही है. निरंकुश सत्ता के खिलाफ अवाम हुंकार भर रही है. लोग शासन और उसकी नीतियों से त्रस्त होकर सड़क पर उतर रहे हैं. इन आंदोलनों को सत्ता परिवर्तन की मांग के रूप में देखा जा रहा है लेकिन बदलाव के बयार में कहीं न कहीं मानवाधिकार की भी घोर अहवेलना की जा रही है.
आज 10 दिसम्बर को पूरा विश्व मानवाधिकार दिवस के रूप में मना रहा है. मानवाधिकार एक ऐसा विषय है जिस पर हमेशा से ही बहस रही है. बहस इस बात पर कि इंसान को इंसान की तरह जीने देना और साथ ही क्या इंसान की शक्ल में जो हैवान है उनका भी मानवाधिकार होना चाहिए.
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मानवाधिकार दिवस की शुरुआत संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 1948 में की थी. उसने 1948 में सार्वभौमिक मानवाधिकार घोषणा स्वीकार की थी और 1950 से महासभा ने सभी देशों को इसकी शुरुआत के लिए आमंत्रित किया था. संयुक्त राष्ट्र ने इस दिन को मानवाधिकारों की रक्षा और उसे बढ़ावा देने के लिए तय किया. लेकिन हमारे देश में मानवाधिकार कानून को अमल में लाने के लिए काफी लंबा समय लग गया. भारत में 26 सिंतबर 1993 से मानव अधिकार कानून अमल में लाया गया है.
सीरिया में मानवाधिकार की घोर
आज कई देशों में सत्ता से चिपके राष्ट्राध्यक्षों के शासन में मानव के हितों की अनदेखी की जा रही है. आवाज उठाने पर उन्हें दबा दिया जाता है. इराक, मिस्र, यमन और सीरिया जैसे अरब देशों को कौन भूल सकता है. आज भी मानवाधिकार के लिहाज से यहां की स्थिति दयनीय है.
मानवाधिकार की घोर अहवेलना इसी साल सीरिया में देखने को मिला जब दमिश्क के निकट विद्रोहियों पर किए हमले में रासायनिक हथियारों का प्रयोग किया है. आरोप है कि सीरियन सेना ने आबादी वाले इलाके में खतरनाक रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल किया जिनसे 1300 से ज्यादा आम नागरिक मारे गए. इनमें से अधिकतर बच्चे और महिलाएं थीं. इस हमले ने संपूर्ण विश्व को सोचने पर मजबूर किया.
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मानवाधिकार के जनक का निधन
अब्राहम लिंकन और मार्टिन लूथर किंग जैसे ही ‘दक्षिण अफ्रीका के गांधी’ कहे जाने वाले नेल्सन मंडेला को प्रसिद्ध मानवाधिकार पुरोधा कहा जाता है. हाल ही में 95वें साल की उम्र में इनका निधन हो गया. मंडेला ने अपनी पूरी जिंदगी समानता और सम्मान और मानव के अधिकार में लगा दी. दुनियाभर के नेताओं ने मानवाधिकार पर उनके योगदान को देखते हुए उन्हें ‘श्रेष्ठ व्यक्तित्व’ और ‘महापुरुष’ बताया.
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