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Eid-Ul-Zuha: क्यों किया जाता है जानवर को ही कुर्बान

Special Days
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ईद-उल-जुहा यानी बकरीद को लेकर लोगों के मन में अकसर कई सवाल उठते हैं जैसे मुसलमानों के इस त्यौहार पर भारी संख्या में जानवरों को क्यों मारा जाता है. इसे कुर्बानी का नाम क्यों दिया जाता है. त्यौहार तो अहिंसा का प्रतिक है फिर ऐसी हत्या क्यों.


eid ul zuhaइस्लाम के विश्वास के मुताबिक एक बार अल्लाह हजरत इब्राहिम की परीक्षा लेना चाहते थे और इसीलिए उन्होंने उनसे अपनी सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी देने के लिए कहा. हजरत इब्राहिम को लगा कि उन्हें सबसे प्रिय तो उनका बेटा है इसलिए उन्होंने अपने बेटे की ही बलि देना स्वीकार किया. हजरत इब्राहिम को लगा कि कुर्बानी देते समय उनकी भावनाएं आड़े आ सकती हैं, इसलिए उन्होंने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली थी. जब अपना काम पूरा करने के बाद पट्टी हटाई तो उन्होंने अपने पुत्र को अपने सामने जिन्‍दा खड़ा हुआ देखा. बेदी पर कटा हुआ मेमना पड़ा हुआ था. तभी से इस मौके पर बकरे और मेमनों की बलि देने की प्रथा है. कुछ जगह लोग ऊंटों की भी बलि देते हैं. मुस्लिमों में ऐसी प्रथा को कुर्बानी का नाम दिया गया है जिसका अर्थ है खुद को खुदा के नाम पर कुर्बान कर देना यानि अपनी सबसे प्यारी चीज का त्याग करना.


ईद उल फितर और ईद-उल-जुहा

ईद उल फितर रमजान माह के खत्म होने के अवसर पर मनाया जाता है. यह त्यौहार रमजान के 29 अथवा 30 रोजे की समाप्ति के उपरान्त मनाया जाता है. इसे हम मीठी ईद या सेवइयों वाली ईद भी कहते हैं. ईद-उल-फितर के दिन ईदी देने का रिवाज है. माना जाता है जिस भी मुस्लिम घर में परिवार के लोग जिस अनाज को सबसे ज्यादा खाते हैं, उसके लिए निर्देश है कि तीन किलो प्रति सदस्य के हिसाब से उस अनाज की कीमत का पैसा अलग निकालेगा. इस पैसे का इस्तेमाल उन जरूरतमंद लोगों के लिए किया जाता है.


ईद-उल-जुहा: मुस्लिम धर्म का महत्वपूर्ण त्यौहार ईद-उल-जुहा जिसे हम बकरीद के नाम से भी जानते हैं. ऐसा माना जाता है कि यह त्यौहार मीठी ईद के दो महीने बाद आता है. इस ईद को कुर्बानी के साथ जोड़ा जाता है क्योंकि इस दिन जानवरों की कुर्बानी दी जाती है. कुर्बानी में ज्यादातर बकरों की कुर्बानी दी जाती है. बकरा तन्दुरुस्त और बगैर किसी ऐब का होना चाहिए.   अल्लाह का नाम लेकर जानवर को क़ुर्बान किया जाता है. इसी कुर्बानी और गोश्त को हलाल कहा जाता है. इस गोश्त के तीन बराबर हिस्से किए जाते हैं, एक हिस्सा खुद के लिए, एक दोस्तों और रिश्तेदारों के लिए और तीसरा हिस्सा गरीबों और मिस्कीनों के लिए.

जिस तरह ईद-उल-फितर को गरीबों में पैसा दान के रूप में बांटा जाता है उसी तरह बकरीद को गरीबों में मांस बांटा जाता है. यह इस्लाम की खासियत है कि वह अपने किसी भी पर्व में समाज के कमजोर और गरीब तबके को भूलते नहीं हैं बल्कि उनकी मदद करना उनके धर्म का एक अभिन्न अंग है.

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