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अकसर सवाल किया जाता है कि क्या गांधीजी आज प्रासंगिक हैं? और अक्सर इसका उत्तर देने वाले लोग भी बड़ी मेहनत से उनकी प्रासंगिकता के उदाहरण खोजने में लग जाते हैं लेकिन उनके हाथ कुछ नहीं लगता. प्रासंगिकता के तौर पर केवल महात्मा गांधी की तिथि ही रह जाती है जिसे उनके जन्मदिन और पुण्यतिथि पर याद कर लेते हैं.
जिस भारत का सपना राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने आजादी से पहले देखा था उस सपने को बहुत पहले ही हमारे नीति-निर्माताओं ने भारी-भरकम फाइलों के नीचे दबा दिया. आज देश में भ्रष्टाचार हर जगह सर चढ़कर बोल रहा है. एक तरफ जहां हजारों करोड़ से ज्यादा के घोटाले हो रहे हैं तो दूसरी तरफ घोटाले करने वाले दागियों को बचाने के लिए कानून और अध्यादेश भी लाए जा रहे हैं.
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महात्मा गांधी ने जिस स्वस्थ समाज की कल्पना की थी वहां हिंसा, घृणा, भ्रष्टाचार, असहिष्णुता ने जगह बना ली है. आज देश में राजनीतिक फायदे के लिए मानवता का लहू बहाया जा रहा है. दो समूहों में दंगे कराकर अपने भविष्य को सुरक्षित करने के प्रयास किए जा रहे हैं. वर्तमान में राजनीति अपराध का अड्डा बन चुकी है जिसकी वजह से लोगों का राजनीति और राजनेताओं पर से भरोसा उठ चुका है.
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आजादी के दौरान जिस व्यवस्था को संविधान के नीति-निर्माताओं ने बनाया था उसमें आज दोष ही दोष दिखाई दे रहा है. देश में अराजकता, दंगे, कन्या भ्रूण हत्या, घरेलू हिंसा, शारीरिक शोषण और दहेज जैसी समस्याएं अभी बरकरार हैं जो बताती हैं कि व्यवस्था पूरी तरह से चरमरा गई है. आज जिस काम को विधानपालिका और कार्यपालिका के लिए निर्धारित किया गया है उसे न्यायपालिका के दरवाजे ले जाया जा रहा है.
आज गांधीजी की प्रासंगिकता पर बहस छिड़ी हुई है. आंदोलित समूह का हर सदस्य इनके सिद्धांतों का पालन करता है लेकिन जब व्यक्तिगत तौर पर इन आदर्शों के पालन की बात की जाती है तो असहज स्थिति पैदा होती है. यही विरोधाभास कष्टकारी है.
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