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राजनीतिक दृष्टि से अगर बात 2005 से पहले के वर्षों की की जाए तो भारतीय जनता पार्टी में एक ऐसी नेता रहीं जिनकी ताकत और कद अटल बिहारी वाजपयी तथा लालकृष्ण आडवाणी के बाद तीसरे स्थान पर रहता था. यहां बात हो रही है भाजपा की कद्दावर नेता उमा भारती की.
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आज भले ही बीजेपी के कार्यकर्ता गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का जाप कर रहे हों लेकिन एक दौर था जब उमा भारती को कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक हर शख्स पहचानता था किंतु अपने भड़काऊ भाषण और पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के खिलाफ विवादित बयान देने की वजह से उनका राजनीतिक ग्राफ नीचे गिरने लगा. बीजेपी से उन्हें दो बार निलंबन का सामना करना पड़ा. कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह के साथ संबंधों को लेकर भी पार्टी में उनकी छवि धूमिल हो गई थी.
2005 के निलंबन से लगभग छ्ह साल के राजनीतिक वनवास बाद 2011 में एक बार फिर उमा भारती की भाजपा में वापसी हुई. इसका श्रेय तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी को जाता है. उन्होंने ही उमा की घर वापसी की घोषणा की. गडकरी को छोड़कर उनकी वापसी को लेकर किसी के भी चेहरे पर उत्साह नजर नहीं आया. वैसे उनकी वापसी को लेकर शुरू से ही पार्टी में विरोधाभास की स्थिति विद्यमान थी. विरोध करने वालों में सुषमा स्वराज और अरुण जेटली जैसे बड़े नेता रहे जिनसे कभी भी उनकी नहीं बनी. उमा भी उनके खिलाफ लगातार बोलती रही हैं.
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लेकिन उमा का व्यक्तित्व ही ऐसा है कि धीरे-धीरे पार्टी के सभी छोटे बड़े नेताओं ने उन्हें अपनाना शुरू कर दिया. उनकी मजबूती और राजनीति पर पकड़ को देखते हुए आज वह भारतीय जनता पार्टी में उपाध्यक्ष के रूप में काम कर रही हैं. इस बीच उमा भारती के अंदर बहुत बड़ा बदलाव भी देखने को मिला. वह पहले की अपेक्षा पार्टी के नेताओं के बारे में कम बोलती हैं.
आज वह अपना कोई भी वक्तव्य बहुत ही सोच समझकर जारी करती हैं. वह इस बात का ध्यान रखती हैं कि जो गलती उन्होंने पहले की है उसे दोबारा नहीं दोहराया जाए. इस समय ज्यादातर उनका ध्यान पार्टी और उससे जुड़े रणनीतियों पर होती है. आज उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2012 में उनके बेहतर प्रदर्शन को देखते हुए पार्टी उन्हें लोकसभा चुनाव 2014 के लिए तैयार कर रही है.
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