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मंदिर में पूजते हैं फिर घर में मारते क्यूं हैं?

Special Days
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international-womens-dayएक नारी की पूजा का विधान भारतीय शास्त्रों में आदि देवी शक्ति की उपासना का सबसे बेहतर तरीका माना गया है. कन्या पूजन से बड़ा पुण्य कुछ नहीं होता और बेटी के कन्यादान से बड़ा कोई दान नहीं होता. लेकिन पवित्र शास्त्रों में लिखी-कही यह बातें क्या सिर्फ कागजों तक ही सीमित रहेंगी? आखिर क्यूं जिस देश में नारी को कन्या रूप में पूजने का विधान है वहां कन्या भ्रूण हत्या एक बड़े पैमाने पर होती है? क्यूं जिस देश में परमात्मा को नारी रूप में देवी मां कहा जाता है उसे घर की चौखट के अंदर ही रखा जाना बेहतर समझा जाता है? क्यूं इस देश में मर्दों की मर्दानगी अपनी पत्नी पर काबू रखने और उसके शरीर पर चोट देने की कला से मापा जाता है? आज विश्व महिला दिवस के मौके पर शायद हर भारतीय महिला (International Women’s Day in Hindi) के मन में यही प्रश्न हो और सिर्फ भारत ही क्यूं विश्व के अन्य देशों में भी महिलाओं की स्थिति वासना-पूर्ति और बच्चा जनने वाली मशीन से अधिक नहीं है.


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महिलाओं की स्थिति

आज जब हम विश्व पटल पर बड़ी-बड़ी महिलाओं को राष्ट्राध्यक्ष या बड़े कारोबारियों की लिस्ट में अव्वल पाते हैं तो हमें लगता है हो गया भैया नारी सशक्तिकरण लेकिन  मुठ्ठी भर महिलाओं के उत्थान करने से पूरे नारी समाज का तो कल्याण नहीं हो सकता ना. आज अगर सच में महिलाओं का सशक्तिकरण हुआ होता तो दिल्ली गैंगरेप के बाद जनता को सड़कों पर ना उतरना पड़ता, गोपाल कांडा जैसे नर पिशाचों के पंजों तले किसी गीतिका जैसी फूल के अरमान ना कुचलते. गर देश और इस संसार में महिलाओं को जीने और सम्मान से रहने का समान अवसर प्रदान होता तो कन्या भ्रूण हत्या एक वैश्विक समस्या नहीं बनती.


अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मायने

टीवी और फैशन शो में उन्मुक्त महिलाओं को देख जो लोग महिला सशक्तिकरण के गुणगान करते हैं उन्हें यह समझना चाहिए कि अगर ऐसा होता तो शायद अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने की जरूरत ही ना होती. हम अंतरराष्ट्रीय बाघ या विश्व शेर दिवस आदि मनाते हैं क्यूंकि सृष्टि की यह अनमोल कृतियां अब गुमनामी के कगार पर हैं लेकिन महिलाओं की आबादी तो विश्व की संपूर्ण आबादी के लगभग आधी है. ऐसे में अगर हमें विश्व महिला दिवस मनाना पड़ रहा है तो यह एक गंभीर समस्या है. हमें यह समझना चाहिए कि मात्र एक दिन महिला दिवस के नाम करने से महिला समाज का कल्याण नहीं होगा. आप एक रैली में तो महिला उत्थान के नारे लगाएं और वहीं घर जाकर अपनी बेटी को छोटी स्कर्ट पहनने पर डांटें और बीवी को खाने में नमक कम होने पर मारें तो यह कतई महिला समाज के प्रति एक उदारवादी सोच का नतीजा नहीं है. हमें नारी के विषय और उसकी जरूरत को समझना होगा.


नारी का स्थान और महत्व

भारतीय वेदों में वर्णित है कि ईश्वर अर्द्धनारीश्वर रूप में हैं यानि ईश्वर भी नारी के बिना आधे और अधूरे हैं. वेदों में ही लिखा गया है कि:


“यत्र नार्यस्तु पूज्‍यंते रमन्ते तत्र देवता”

यानि जहां नारी की पूजा होती है वहां ईश्वर का वास होता है. लेकिन आधुनिक समाज और बाजारवाद ने महिलाओं को मात्र उपभोग की वस्तु बनाकर पेश किया है. आज बाजारवाद का ही नतीजा है कि डियो से लेकर कंडोम तक के विज्ञापनों में आपको नारी की कामुकता पेश की जाती है. फिल्मों में नारी को भोग की वस्तु के रूप में सजा कर परोसा जाता है.


इसके पीछे वजह क्या है?

ऐसा नहीं है कि नारियों की स्थिति के ऊपर सिर्फ वेद और पुराणों ने ही लिखा है. भारतीय महापुरुषों ने भी नारी की गरिमा और सम्मान की रक्षा करने की पैरवी करते हुए समाज को कई नसीहतें दी हैं. इसी क्रम में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का कथन है कि: स्त्रियों की मानहानि साक्षात् लक्ष्मी औरसरस्वती की मानहानि है.

तो वहीं भारत के संविधान निर्माता तो समाज की प्रगति को महिलाओं की प्रगति से मापते थे. उनका कहना था कि: मैं किसी समुदाय की प्रगति, महिलाओं नेजो प्रगति हासिल की है उससे मापता हूं.


नारी: प्रगतिशील या अप्रगतिशील

आज जब भी बात विश्व महिला दिवस की होती है तो उन महिलाओं के नाम सबसे अधिक सामने आते हैं जिनकी चमक से महिला समाज प्रकाशमय नजर आता है जैसे अगर भारत के संदर्भ में बात करें तो आपको इंदिरा गांधी, साइना नेहवाल, झांसी की रानी, कल्पना चावला जैसे नाम सुनाई देंगे. लेकिन समाजशास्त्रियों और महिला समाज की सच्चाई को जमीनी स्तर पर जानने वालों का मानना है कि दरअसल यह सब एक दिखावा है, एक छल है जो उसी समाज के द्वारा पैदा किया जाता है जो महिलाओं को दबाना चाहता है. दरअसल चमकदार चीजों को आगे करके बदस्तूर तस्वीर को छुपाने का यह मार्केटिंग फंडा बेहद दिलचस्प और कहें तो कारगर भी है.


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फिल्मी दुनिया या राजनीति से जुड़ी मुठ्ठी भर महिलाओं को महिला सशक्तिकरण का चेहरा बताकर समाज के ठेकेदार उन महिलाओं की स्थिति को छुपाना चाहते हैं जो दो जून की रोटी के लिए अपने शरीर तक को बेचने को तैयार हैं. क्या कभी कोई न्यूज चैनल महिला दिवस के मौके पर उन स्त्रियों के बारे में अपनी रिपोर्ट पेश करता है जो वेश्यालयों में चंद पैसों के लालच या यों कहें मजबूरी में अपना तन बेचने के लिए जागती हैं. क्या महिला दिवस पर समाज स्त्रियों के उस कुरुप और बदसूरत चेहरे को देखता है जो एसिड से जला दिया जाता है? नहीं. ऐसा इसलिए ताकि महिला सशक्तिकरण के सब्जबाग दिखाकर महिलाओं और समाज को गुमराह रखा जाए. इसमें सबका फायदा है, सशक्तिकरण का झूठा मोह दिखा बाजार महिलाओं के नंगे शरीर को दिखाकर खुश है तो यही चीज राजनेताओं को अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकने की आंच प्रदान करता है.


हालांकि महिला दिवस के मौके पर यह कहना भी गलत नहीं होगा कि महिलाओं की स्थिति नहीं बदली है. कल तक जिन महिलाओं को समाज का कोई भी हक प्रदान नहीं होता था आज कम से कम उन कुछ मौलिक अधिकारों का प्रयोग करने की तो आजादी है. महिला कॉलेजों और विद्यालयों से निकलती कन्याओं की संख्या देख दिल में खुशी होती है लेकिन अगले ही पल जब कोई मनचला किसी लड़की का दुपट्टा खींच कर भाग जाता है या कोई सिरफिरा आशिक किसी लड़की के चेहरे पर एसिड के कभी ना मिटने वाला दाग छोड़ जाता है और इस घटना से उस लड़की की सहेली के परिवार वाले अपनी लड़की को स्कूल-कॉलेज भेजना बंद कर देते हैं तो समाज में महिलाओं की निम्न और करुणामयी स्थिति का आभास होता है.


समाज में आज कई लड़कियां साइना नेहवाल और कल्पना चावला की तरह बनना चाहती हैं लेकिन जब वह खुद को दामिनी जैसी स्थिति में महसूस करती हैं तो उन्हें खुद लगता है कि घर के अंदर ही बैठना सही है.

महिलाएं भी हैं दोषी

विश्व महिला दिवस के मौके पर आज जगह-जगह महिलाओं के सम्मान में कार्यक्रम रखे जाएंगे. इसके साथ ही कुछ स्त्रियां आपको आज ऐसी भी मिलेंगी जो नंगेपन को नारी सशक्तिकरण का रूप मानती हैं. नारी सम्मान की वस्तु है और इज्जत नारियों का गहना होता है. जब नारी खुद ही अपना गहना उतार फेंके तो अन्य कोई कैसे मदद करें? हालांकि यह एक विरोधाभास जरूर है कि हम अंगदिखाऊ फैशन को लड़कियों पर हो रहे बलात्कार की वजह मानते हैं लेकिन जो शर्मनाक हरकत एक पांच वर्ष की अबोध बच्ची और पचास साल की वृद्धा के साथ होती है उसका दोषी सिर्फ वह मानसिक रूप से विक्षिप्त समाज है जो नारी को सेक्स या उपभोग की वस्तु समझता है. ऐसी मानसिकता के लोगों के लिए पचास साल की वृद्धा और पांच साल की अबोध बच्ची में अंतर नहीं, उसे तो मतलब है अपनी नीच वासना की पूर्ति से.


महिलाओं को उनका सही सम्मान तभी मिलेगा जब मानसिक और शारीरिक रूप से उन्हें सभी अधिकार प्राप्त होंगे. महिलाएं तभी समाज में कंधा से कंधा मिलाकर चलने की भूमिका में आ पाएंगी जब समाज उन्हें संभलने के मौके देगा. एक बलात्कार पीड़ित को समाज की दया दृष्टि की जरूरत नहीं है उसे जरूरत है उनके कंधे की, उनके आत्मविश्वास की. एक वेश्या अगर अपना जीवन नए सिरे से शुरू करना चाहे तो समाज उसे कुलटा या अपमानित ना करें बल्कि उसे एक मौका दें समाज की धारा में आने का. महिलाओं के उत्थान की राह अभी लंबी है और इस सफर में यह कहा जा सकता है कि महिलाओं को एक लंबा रास्ता तय करना है.


अंत में समाज की सभी महिलाओं को विश्व महिला दिवस की हार्दिक बधाई और एक अनाम कवि की कुछ लाइनें जो शायद विश्व महिला दिवस के मर्म को सभी ढंग से समझा सकें:


घर से दफ़्तर चूल्हे से चंदा तक
पुरुष संग अब दौड़े यह नार
महिला दिवस है शक्ति दिवस भी
पुरुष नज़रिए में हो और सुधार.


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