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भाषा किसी भी इंसान की मूल पहचान का प्रथम चिह्न होती है. भाषा इंसान की ऐसी विरासत होती है जिसे ना तो कोई उससे छीन सकता है ना चुरा सकता है. विश्व के अधिकांश देशों की अपनी मातृभाषा होती है जिसे वहां के कानून द्वारा राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त हुआ है. लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि भारत जैसे दुनिया के बेहद प्रभावी और शक्तिशाली प्रगतिशील राष्ट्र के पास अपनी राष्ट्रभाषा नहीं है. हिन्दी हिन्दुस्तान की मातृभाषा तो है लेकिन मात्र एक सरकारी ठप्पे की वजह से हम इसे राष्ट्रभाषा नहीं कह पा रहे हैं.
मातृभाषा की जरूरत
मातृभाषा किसी भीव्यक्ति की सामाजिक पहचान का आधार होता है. मातृभाषा उस भाषा को कहते हैं जिसके द्वारा इंसान अपने आसपास के लोगों के साथ संपर्क स्थापित करता है. जन्म लेने के बाद इंसान जो प्रथम भाषा सीखता है उसे उसकी मातृभाषा कहते हैं. सृष्टि के आरम्भ से ही मानव-विचारों का आदान-प्रदान अभिव्यक्ति से होता है. अभिव्यक्ति को प्रकट करने का सबसे प्रबल और असरकारी रूप कोई भी ‘भाषा’ नहीं बल्कि मात्र ‘मातृभाषा’ होती है.
इसके लिए इंसान को किसी व्याकरण की खास जरूरत नहीं होती. जैसे पंजाब में पैदा हुए बच्चे को पंजाबी सीखने के लिए किसी क्लास की जरूरत नहीं होगी लेकिन हां, इस भाषा में भी निपुण होने के लिए उसको शिक्षा लेनी चाहिए और ऐसा करने से उसके व्यक्तित्व में निखार ही आएगा. परंतु हो सकता है एक पंजाबी बच्चे को हिन्दी सीखने में दिक्कत हो क्यूंकि उसके लिए यह मातृभाषा नहीं होती. इसी तरह इंग्लैण्ड में पैदा हुए बच्चे के लिए अंग्रेजी सीखना बाएं हाथ का खेल लेकिन एक चीनी युवा के लिए अंग्रेजी टेढ़ी खीर साबित हो सकती है.
International Mother Language Day– विश्व मातृभाषा दिवस
मानव समाज में कई दफा हमें मानवाधिकारों के हनन के साथ-साथ मातृभाषा के उपयोग को गलत भी बताया जाता है. ऐसी ही स्थिति पैदा हुई थी 21 फरवरी, 1952 को बांग्लादेश में. दरअसल 1947 में भारत के विभाजन के बाद पाकिस्तान ने पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में उर्दू को राष्ट्रीय भाषा घोषित कर दिया था. लेकिन इस क्षेत्र में बांग्ला बोलने वालों की अधिकता ज्यादा थी. 1952 में जब अन्य भाषाओं को पूर्वी पाकिस्तान में अमान्य घोषित किया गया तो ढाका विश्वविद्यालय के छात्रों और आम नागरिकों ने आंदोलन छेड़ दिया. आंदोलन को रोकने के लिए पुलिस ने छात्रों और प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलानी शुरू कर दी जिसमें कई छात्रों की मौत हो गई. अपनी मातृभाषा के हक में लड़ते हुए मारे गए शहीदों की ही याद में ही आज के दिन को स्मृति दिवस के रूप में भी मनाया जाता है.
यूनेस्को महासभा ने नवंबर 1999 में दुनिया की उन भाषाओं के संरक्षण और संवर्धन की ओर दुनिया का ध्यान आकर्षित करने के लिए साल 2000 से प्रति वर्ष 21 फ़रवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाने का निश्चय किया जो कहीं न कहीं संकट में हैं.
मातृभाषा पर गर्व करें
मातृभाषा इंसान के लिए एक पहचान होती है. अगर आपके पास अपनी मातृभाषा है तो समाज में यह समझा जाता है कि वैश्विक स्तर पर आपकी संस्कृति की एक पहचान है, एक वजूद है. आपके पास अपने समाज में अपनी बात उठाने का एक सशक्त हथियार है. लेकिन कई बार लोग तथाकथित आधुनिकता के रंग में सभ्य और प्रगतिशील दिखने की चाह में अपनी मातृभाषा को सार्वजनिक स्थलों पर बोलने में शरमाते हैं जो बेहद अशोभनीय व्यवहार है. आज कई लोग भारत की मातृभाषा यानि हिन्दी को बोलने में शरमाते हैं. बिजनेस वर्ल्ड और कॉरपेट जगत में तो हिन्दी बोलने वाले को गंवार समझा जाता है. ऐसे तथाकथित लोगों के लिए ही गांधी जी ने कहा था कि “मातृभाषा का अनादर मां के अनादर के बराबर है.”
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भारत के सभी लोगों को यह याद रखना चाहिए कि हिन्दी मात्र भाषा नहीं मातृभाषा है.
हिन्दी हिन्दुस्तान को बांधती है. नवजागरण और स्वतंत्रता आंदोलन में स्वामी दयानंद से लेकर विवेकानंद तक लोगों को जगाने के अभियान की भाषा हिंदी ही बनी. गांधी ने भाषा की इस शक्ति को पहचाना और करोड़ो लोगों में राष्ट्रभक्ति का ज्वार पैदा किया तो उसका माध्यम हिंदी ही बनी थी. लेकिन यह किसी दुर्भाग्य से कम नहीं कि जिस हिन्दी को हजारों लेखकों ने अपनी कर्मभूमि बनाया, जिसे कई स्वतंत्रता सेनानियों ने भी देश की शान बताया उसे देश के संविधान में राष्ट्रभाषा नहीं बल्कि सिर्फ राजभाषा की ही उपाधि दी गई. जाति और भाषा के नाम पर राजनीति करने वाले चन्द राजनेताओं के निजी और तुच्छ स्वार्थों की वजह से देश का सम्मान बनने वाली भाषा सिर्फ राजभाषा तक ही सीमित रह गई. रही-सही कसर आज के बाजारीकरण ने पूरी कर दी जिस पर अंग्रेजी की पकड़ है.
है भव्य भारत ही हमारी मातृभूमि हरी भरी
हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा और लिपि है नागरी
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