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भगवान भी हुए थे विवश, पिया था दुध

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कहते हैं अगर इंसान कुछ करने की ठान ले तो कुछ भी नामुमकिन नहीं. अगर हम भारतीय संत समाज के इतिहास पर नजर डालें तो ऐसे कई उदाहरण मिलेंगे जिन्होंने अपने हठ से कई चमत्कारी कार्य किए. ऐसे ही लोगों में से एक थे संत नामदेव. कहते हैं संत नामदेव के हठ के आगे भगवना विठ्ठल ने भी दुध पिया था.

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भगवान विठ्ठल का भोग

जब संत नामदेव पांच वर्ष के थे तब उनके पिता विट्ठल की मूर्ति को दूध का भोग लगाने का कार्य नामदेव को सौंप कर कहीं बाहर चले गए. बालक नामदेव को पता नहीं था कि विट्ठल की मूर्ति दूध नहीं पीती, उसे तो भावनात्मक भोग लगवाया जाता है. नामदेव ने मूर्ति के आगे पीने को दूध रखा. मूर्ति ने दूध पीया नहीं, तो नामदेव हठ ठानकर बैठ गए कि जब तक विट्ठल दूध नहीं पीएंगे, वह वहां से हटेंगे नहीं. कहते हैं हठ के आगे विवश हो विट्ठल ने दूध पी लिया.


संत नामदेव का स्थान

निर्गुण संतों में अग्रिम संत नामदेव वस्तुत:उत्तर-भारत की संत परंपरा के प्रवर्तक माने जाते हैं. मराठी संत-परंपरा में तो वह सर्वाधिक पूज्य संतों में हैं. मराठी अभंगों(विशेष छंद) के जनक होने का श्रेय भी उन्हीं को प्राप्त है. उत्तर-भारत में विशेषकर पंजाब में उनकी ख्याति इतनी अधिक रही कि सिखों के प्रमुख पूज्य ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब में उनकी वाणी संकलित हैं, जो प्रतिदिन अब भी बडी श्रद्धा से गाई जाती है. संत नामदेव संत कबीर, रैदास,नानक की निर्गुण भक्ति धारा के प्रवर्तक होने के कारण स्वयं भी मूर्ति पूजा, कर्मकांड, जाति-पांति व सांप्रदायिकता के कठोर निंदक रहे हैं.


संत नामदेव अपनी उच्चकोटि की आध्यात्मिक उपलब्धियों के लिए ही विख्यात हुए. चमत्कारों के सर्वथा विरुद्ध थे. वह मानते थे कि आत्मा और परमात्मा में कोई अंतर नहीं है. तथा परमात्मा की बनाई हुई इस भू (भूमि तथा संसार) की सेवा करना ही सच्ची पूजा है. इसी से साधक भक्त को दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है. सभी जीवों का सृष्टाएवं रक्षक, पालनकत्र्ताबीठलराम ही है, जो इन सब में मूर्त भी है और ब्रह्मांड में व्याप्त अमू‌र्त्त भी है. इसलिए नामदेव कहते हैं:-


जत्रजाऊं तत्र बीठलमेला.

बीठलियौराजा रांमदेवा॥


सृष्टि में व्याप्त इस ब्रह्म-अनुभूति के और इस सृष्टि के रूप आकार वाले जीवों के अतिरिक्त उस बीठलका कोई रूप, रंग, रेखा तथा पहचान नहीं है. वह ऐसा परम तत्व है कि उसे आत्मा की आंखों से ही देखा अनुभव किया जा सकता है. संत नामदेव का “वारकरी पंथ” (वारकरी संप्रदाय) आज तक उत्तरोत्तर विकसित हो रहा है.


वारकरी संप्रदाय :सामान्य जनता प्रति वर्ष आषाढी और कार्तिकी एकादशी को विठ्ठल दर्शन के लिए पंढरपुर की ‘वारी’ (यात्रा) किया करती है . यह प्रथा आज भी प्रचलित है . इस प्रकार की वारी (यात्रा) करने वालों को ‘वारकरी’ कहते हैं . विठ्ठलोपासना का यह ‘संप्रदाय’ ‘वारकरी’ संप्रदाय कहलाता है . नामदेव इसी संप्रदायके एक प्रमुख संत माने जाते हैं .

उन्होंने अस्सी वर्ष की आयु में पंढरपुर में विट्ठल के चरणों में आषाढ़ त्रयोदशी संवत 1407 तदानुसार 3 जुलाई, 1350ई. को समाधि ली.

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