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जीवित्पुत्रिका व्रत: मां की ममता का अंत नहीं

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भारत को त्यौहारों का देश कहा जाता है जहां हर दिन कोई ना कोई त्यौहार होता है. त्यौहारों के ऐसे रंग शायद ही कहीं और देखने को मिलते हैं जहां हर संस्कृति और धर्म के त्यौहार बड़े ही मिलनसार रुप में मनाए जाते हैं. जीवित्पुत्रिका व्रत(Jivitputrika Vrat)भारत के ऐसे त्यौहारों में से एक है जिसमें मां अपने बेटे की लम्बी आयु के लिए व्रत रखती है साथ ही यह भी कामना करती है कि उसका बेटा सही रास्ते पर चले और अपनी जिन्दगी में सही रास्ते से अपनी मंजिल तक पहुंचे.

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समाज का बदलता नजरिया

jivputrikaएक समय ऐसा था कि जब जीवित्पुत्रिका व्रत(Jivitputrika Vrat)को सिर्फ बेटों के लिए रखा जाता था पर आज समाज का नजरिया बदल रहा है. आज लोग भारत के सभी त्यौहारों को मना तो रहे हैं पर नए नजरिये के साथ. आज की मां जीवित्पुत्रिका व्रत को तो रखती है पर सिर्फ अपने बेटों के लिए नहीं बल्कि अपने बच्चों के लिए. आज की मां का मानना है कि जीवित्पुत्रिका व्रत(Jivitputrika Vrat)का अर्थ यह है कि मां अपने जीव के लिए लम्बी उम्र की कामना करती है और मां के लिए बेटा हो या बेटी हर कोई उसके अंग का हिस्सा होता है. इसलिए मां अपने हर बच्चे के लिए लम्बी उम्र की कामना करती है.


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Jivitputrika Vrat Katha

जीवित्पुत्रिका व्रत कथा

जीवित्पुत्रिका-व्रत के साथ जीमूतवाहन की कथा जुड़ी है. संक्षेप में वह इस प्रकार है – गन्धर्वों के राजकुमार का नाम जीमूतवाहन था. वे बडे उदार और परोपकारी थे. जीमूतवाहन के पिता ने वृद्धावस्था में वानप्रस्थ आश्रम में जाते समय इनको राजसिंहासन पर बैठाया किन्तु इनका मन राज-पाट में नहीं लगता था. वे राज्य का भार अपने भाइयों पर छोडकर स्वयं वन में पिता की सेवा करने चले गए. वहीं पर उनका मलयवती नामक राजकन्या से विवाह हो गया. एक दिन जब वन में भ्रमण करते हुए जीमूतवाहन काफी आगे चले गए, तब उन्हें एक वृद्धा विलाप करते हुए दिखी. इनके पूछने पर वृद्धा ने रोते हुए बताया – मैं नागवंशकी स्त्री हूं और मुझे एक ही पुत्र है. पक्षिराज गरुड के समक्ष नागों ने उन्हें प्रतिदिन भक्षण हेतु एक नाग सौंपने की प्रतिज्ञा की हुई है. आज मेरे पुत्र शंखचूड की बलि का दिन है. जीमूतवाहन ने वृद्धा को आश्वस्त करते हुए कहा – डरो मत. मैं तुम्हारे पुत्र के प्राणों की रक्षा करूंगा. आज उसके बजाय मैं स्वयं अपने आपको उसके लाल कपडे में ढंककर वध्य-शिला पर लेटूंगा. इतना कहकर जीमूतवाहन ने शंखचूड के हाथ से लाल कपडा ले लिया और वे उसे लपेटकर गरुड को बलि देने के लिए चुनी गई वध्य-शिला पर लेट गए. नियत समय पर गरुड बडे वेग से आए और वे लाल कपडे में ढंके जीमूतवाहन को पंजे में दबोचकर पहाड के शिखर पर जाकर बैठ गए. अपने चंगुल में गिरफ्तार प्राणी की आंख में आंसू और मुंह से आह निकलता न देखकर गरुडजी बडे आश्चर्य में पड गए. उन्होंने जीमूतवाहन से उनका परिचय पूछा. जीमूतवाहन ने सारा किस्सा कह सुनाया. गरुड जी उनकी बहादुरी और दूसरे की प्राण-रक्षा करने में स्वयं का बलिदान देने की हिम्मत से बहुत प्रभावित हुए. प्रसन्न होकर गरुड जी ने उनको जीवन-दान दे दिया तथा नागों की बलि न लेने का वरदान भी दे दिया. इस प्रकार जीमूतवाहन के अदम्य साहस से नाग-जाति की रक्षा हुई और तबसे पुत्र की सुरक्षा हेतु जीमूतवाहन की पूजा की प्रथा शुरू हो गई.


आश्विन कृष्ण अष्टमी के प्रदोषकाल में पुत्रवती महिलाएं जीमूतवाहन की पूजा करती हैं. कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर माता पार्वती को कथा सुनाते हुए कहते हैं कि आश्विन कृष्ण अष्टमी के दिन उपवास रखकर जो स्त्री सायं प्रदोषकाल में जीमूतवाहन की पूजा करती हैं तथा कथा सुनने के बाद आचार्य को दक्षिणा देती है, वह पुत्र-पौत्रों का पूर्ण सुख प्राप्त करती है. व्रत का पारण दूसरे दिन अष्टमी तिथि की समाप्ति के पश्चात किया जाता है. यह व्रत अपने नाम के अनुरूप फल देने वाला है.

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