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पवित्र भारत भूमि ने ऐसे अनेक संत-महात्माओं को जन्म दिया है जिनका संपूर्ण जीवन एक आदर्श के रूप में आज भी लोगों को धर्म की राह पर चलाने और उनका मार्गदर्शन करने में निरंतर सहायक सिद्ध हो रहा है. हिंदू जीवन पद्वति को वैश्विक स्तर पर पहचान दिलवाने में आदि शंकराचार्य की भूमिका बहुत अहम रही है. आदि शंकराचार्य अद्वैत वेदान्त के प्रणेता, संस्कृत के विद्वान, उपनिषद व्याख्याता और हिन्दू धर्म प्रचारक थे. हिंदू धार्मिक मान्यताओं पर नजर डालें तो इन्हें भगवान शंकर का अवतार भी माना है. आदि शंकराचार्य ने लगभग पूरे भारत की यात्रा की लेकिन अपने जीवन का अधिकांश समय इन्होंने उत्तर भारत में ही बिताया.
हिंदू मान्यताओं के अनुसार आदि शंकराचार्य का जन्म सन 788 में दक्षिण भारत के केरल में स्थित कालड़ी ग्राम में हुआ था. आदि शंकराचार्य ने अपने गुरू से ना सिर्फ शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया बल्कि कम उम्र में ही उन्होंने ब्रह्मत्व का भी अनुभव कर लिया था. काशी में रहकर उन्होंने जीवन के व्यवहारिक और आध्यात्मिक पक्ष के पीछे की सत्यता को भी जाना.
हिंदू धर्म के लिए आदि शंकराचार्य का योगदान
आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित अद्वैत वेदांत संप्रदाय नौंवी शताब्दी में बेहद लोकप्रिय हुआ. उन्होंने प्राचीन भारतीय उपनिषदों के सिद्धान्तों को फिर से एक बार जीवित करने का प्रयत्न किया. शंकराचार्य ने ईश्वर के स्वरूप को पूरी आत्मीयता और वास्तविकता के साथ स्वीकार किया. उनका मानना था कि वे लोग जो इस मायावी संसार को वास्तविक मानते हैं और ईश्वर के स्वरूप को नकार देते हैं वह पूरी तरह अज्ञानी होते हैं.
सादगी और महानता की मूरत थे देश के पहले राष्ट्रपति
संन्यासी समुदाय में सुधार लाने और संपूर्ण भारत को एकीकृत रखने के लिए उन्होंने भारत में चार मठों (गोवर्धन पीठ – ऋग्वेद, शारदा पीठ – यजुर्वेद, द्वारका पीठ – साम वेद, ज्योतिर्मठ – अथर्ववेद) की स्थापना की. अवतारवाद की विचारधारा के अनुसार ईश्वर धरती पर अवतार केवल धर्म की रक्षा के लिए ही लेते हैं और जब हिंदू धर्म का अस्तित्व खतरे में था तब उस समय शिव के अवतार के रूप में शंकराचार्य का धरती पर आगमन हुआ.
आदि शंकराचार्य की रचनाएं
आदि शंकराचार्य ने उपनिषदों, श्रीमद्भगवद् गीता एवं ब्रह्मसूत्र पर कई भाष्य लिखे हैं. उनके द्वारा रचित यह सभी भाष्य ‘प्रस्थानत्रयी’ के अन्तर्गत रखे गए हैं. शंकराचार्य ने हिन्दू धर्म के स्थायित्व, प्रचार-प्रसार एवं प्रगति में अपूर्व योगदान दिया. उनके व्यक्तितत्व में गुरु, दार्शनिक, समाज एवं धर्म सुधारक, विभिन्न मतों तथा सम्प्रदायों के समन्वयकर्ता के सभी गुण दिखाई देते हैं. वह अपने समय के उत्कृष्ट और महानतम दार्शनिक तो थे ही, आज भी उनकी स्थापनाओं को नकार पाना किसी के लिए भी संभव नहीं है. इतिहास में उनका स्थान इनके ‘अद्वैत सिद्धान्त’ के कारण हमेशा अमर रहेगा. गौड़पाद के शिष्य ‘गोविन्द योगी’ को शंकराचार्य ने अपना प्रथम गुरु बनाया. गोविन्द योगी से उन्हें ‘परमहंस’ की उपाधि प्राप्त हुई.
शंकराचार्य एक महान समन्वयवादी थे. हिंदू धर्म को स्थापित करने और विश्व भर में प्रतिष्ठित स्थान दिलवाने में उनका सबसे बड़ा योगदान है. उन्होंने अद्वैत चिन्तन को पुनर्जीवित कर सनातन हिंदू दर्शन शास्त्र को सुदृढ़ किया वहीं उन्होंने मूर्ति पूजा के औचित्य को भी सिद्ध करने का सफल प्रयास किया. आदि शंकराचार्य के मायावाद पर महायान बौद्ध चिंतन का प्रभाव देखा जा सकता है इसीलिए उन्हें प्रछन्न बौद्ध भी कहा गया है.
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