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साहित्य और समाज का संबंध हमेशा से ही बहुत गहरा रहा है. समाज को सही राह पर अग्रसर रखने और व्याप्त कमियों को समझने के लिए साहित्य ने बहुत बड़ी और महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. स्वाधीनता संग्राम की ज्वाला को प्रज्वलित रखने में साहित्यकारों के योगदान को कभी भी कम नहीं आंका जा सकता. इन्हीं साहित्यकारों की सम्माननीय श्रेणी में गणेश शंकर विद्यार्थी का नाम भी शामिल है. गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में ऐसे ही शीर्ष स्तंभ थे, जिनके द्वारा लिखित और प्रकाशित समाचार पत्र ‘प्रताप‘ ने स्वाधीनता आन्दोलन में प्रमुख भूमिका निभाई. प्रताप के जरिये ही ना जाने कितने क्रांतिकारी स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने के लिए प्रेरित हुए. इतना ही नहीं यह समाचार पत्र समय-समय पर साहसी क्रांतिकारियों की ढाल भी बना.
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26 सितंबर, 1890 को कानपुर में जन्मे गणेशशंकर विद्यार्थी एक निडर और निष्पक्ष पत्रकार तो थे ही, एक समाज-सेवी, स्वतंत्रता सेनानी और कुशल राजनीतिज्ञ भी थे. गणेश शंकर विद्यार्थी एक ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे जो कलम और वाणी के साथ-साथ महात्मा गांधी के अहिंसक समर्थकों और क्रांतिकारियों को समान रूप से देश की आजादी में सक्रिय सहयोग प्रदान करते रहे.
विद्यार्थी जी की शैली में भावात्मकता, ओज, गाम्भीर्य और निर्भीकता भी पर्याप्त मात्रा में पायी जाती है. उनकी भाषा कुछ इस तरह की थी जो हर किसी के मन पर तीर की भांति चुभती थी. गरीबों की हर छोटी से छोटी परेशानी को वह अपनी कलम की ताकत से दर्द की कहानी में बदल देते थे.
गणेशशंकर विद्यार्थी की मृत्यु कानपुर के हिन्दू-मुस्लिम दंगे में निस्सहायों को बचाते हुए 25 मार्च, 1931 ई. को हुई. गणेश शंकर जी की मृत्यु देश के लिए एक बहुत बड़ा झटका रही.
गणेशशंकर विद्यार्थी एक ऐसे साहित्यकार रहे हैं जिन्होंने देश में अपनी कलम से सुधार की क्रांति उत्पन्न की. आज साहित्य केवल धन अर्जित करने का एक माध्यम बन कर रह गया है. भौतिकवादिता से ग्रस्त आज के दौर में शायद ही कोई साहित्य की विधा की गंभीरता समझता हो. आज हमारे समाज को ऐसे साहित्यकारों की दरकार है जो अपने सभी दायित्वों का निर्वाह करना जानता हो और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को समझे.
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