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भारत में कई ऐसे महापुरुष पैदा हुए हैं, जिन्होंने अपने अनुभव, ज्ञान और विवेक से संपूर्ण विश्व का मार्गदर्शन किया है. ऐसे ही महापुरुष हैं – स्वामी दयानंद सरस्वती. महान संत दयानंद सरस्वती का जन्म 19वीं शताब्दी में हुआ था.
जिस समय उनका जन्म हुआ उस समय भारत में सर्वत्र अज्ञानता, जड़ता, ढोंग, पाखंड, अंधविश्वास, छुआछूत आदि जैसी कुरीतियां फैली हुई थीं. अज्ञानता की वजह से आम जनता बेहद कमजोर नजर आती थी. ऐसे समय में स्वामी दयानंद ने भगवान की भक्ति को झूठा बता कर शास्त्रों और वेदों को सर्वोपरि माना. उन्होंने ढोंग और दिखावे वाली ईश्वरीय श्रद्धा की निंदा की और मानव सेवा को सर्वोपरि बताया.
स्वामी दयानंद सरस्वती मानव के सामाजिक और बौद्धिक विकास का स्त्रोत वेदों को ही मानते थे. उन्होंने जो कुछ भी बताया उसका आधार वेद, वैदिक साहित्य, मनुस्मृति, रामायण आदि ग्रंथ थे. उनका कहना था कि “वैदिक धर्म में परमात्मा, वेद ज्ञान, मानव धर्म और सृष्टि धर्म का चिंतन-मनन है. इसमें प्राणि मात्र के कल्याण और उनकी सुख-शांति की मंगलकामनाएं मौजूद हैं. सच तो यह है कि वैदिक धर्म के सिद्धांत, मान्यताएं आदि वैज्ञानिक दृष्टिकोण के सर्वथा अनुकूल रहे हैं.” वे मानते थे कि ईश्वर की बनाई सृष्टि में मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी है. उसके जीवन में भोग और मोक्ष दोनों की महत्ता है.
वेदों को साधारण जन से जोड़ कर ही महर्षि दयानंद ने अप्रैल 1875 में आर्यसमाज की स्थापना की, जिसके सदस्यों की स्वतंत्रता संग्राम में विशेष भूमिका रही. स्वामी दयानंद ने आर्य समाज के नियमों के रूप में संसार को 10 सूत्र दिए हैं. यदि उनका पालन किया जाए, तो भू-मंडल पर सर्वत्र सुख-संतोष और शांति का साम्राज्य स्थापित हो सकता है. दस नियमों में शारीरिक, आत्मिक, विश्व बंधुत्व और मानवता सूत्र हैं.
स्वामी दयानंद के कुछ प्रमुख कार्य
30 अक्टूबर, 1883 को उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया. दयानंद सरस्वती को भारत के उन महान समाज सेवकों के रूप में हमेशा याद किया जाएगा जिन्होंने इस समाज की धारा को बदलने में विशेष योगदान दिया. कहते हैं एक अकेला क्या भाड फोड़ पाएगा लेकिन उन्होंने अकेले ही वर्षों पुरानी कुरीतियों को बदलकर समाज को नया रूप दिया.
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