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भारत में सभी धर्मों को समान नजर से देखा जाता है लेकिन यह कथन हमेशा सिर्फ कागजी ही लगता है. इतिहास गवाह है कि भारत में धर्म के नाम पर बहुत ही क्रुर दंगे हुए हैं. यह दंगे ना सिर्फ भारत की धर्म-निरपेक्षता पर बहुत बड़ा सवाल खड़ा करते हैं बल्कि यह दंगे उस देश में हो रहे हैं जहा महापुरुषों ने अपने जीवन का बलिदान तक देकर धर्म की रक्षा की है. धर्म के नाम पर मर मिटने की जब भी बात होती है तो सिख समुदाय के गुरुतेग बहादुर जी का नाम बड़ी ही इज्जत और सम्मान के साथ लिया जाता है. अपने धर्म के नाम पर उन्होंने अपने सिर को भी कुर्बान कर दिया. आज उनका बलिदान दिवस है तो चलिए जानते हैं उनके बारें में कुछ बातें.
गुरु तेगबहादुर का बचपन
गुरु तेगबहादुर जी का जन्म पंजाब के अमृतसर नगर में हुआ था. वह गुरु हरगोविन्द सिंह के पांचवे पुत्र थे. सिखो के आठवें गुरु ‘हरिकृष्ण राय’ जी की अकाल मृत्यु हो जाने के कारण जनमत द्वारा गुरु तेगबहादुर को गुरु बनाया गया था. उनके बचपन का नाम त्यागमल था. मात्र 14 वर्ष की आयु में अपने पिता के साथ मुगलों के हमले के खिलाफ हुए युद्ध में उन्होंने वीरता का परिचय दिया. उनकी वीरता से प्रभावित होकर उनके पिता ने उनका नाम त्यागमल से तेगबहादुर (तलवार के धनी) रख दिया.
धैर्य, वैराग्य और त्याग की मूर्ति गुरु तेगबहादुर जी ने एकांत में लगातार 20 वर्ष तक ‘बाबा बकाला’ नामक स्थान पर साधना की. आठवें गुरु हरकिशन जी ने अपने उत्तराधिकारी का नाम के लिए ‘बाबा बकाले’ का निर्देश दिया. गुरु जी ने धर्म के प्रसार लिए कई स्थानों का भ्रमण किया. आनंदपुर साहब से रोपण, सैफाबाद होते हुए वे खिआला (खदल) पहुंचे.
इसके बाद गुरु तेगबहादुर जी प्रयाग, बनारस, पटना, असम आदि क्षेत्रों में गए, जहां उन्होंने आध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक, उन्नयन के लिए रचनात्मक कार्य किए. रूढ़ियों, अंधविश्वासों की आलोचना कर नये आदर्श स्थापित किए. उन्होंने परोपकार के लिए कुएं खुदवाएं और धर्मशालाएं बनवाई. इन्हीं यात्राओं में 1666 में गुरुजी के यहां पटना साहब में पुत्र का जन्म हुआ. जो दसवें गुरु- गुरु गोविंद सिंह बने.
धर्म के लिए मरना बेहतर समझा
औरंगजेब के शासन काल की बात है. औरंगजेब के दरबार में एक विद्वान पंडित आकर रोज़ गीता के श्लोक पढ़ता और उसका अर्थ सुनाता था, पर वह पंडित गीता में से कुछ श्लोक छोड़ दिया करता था.
एक दिन पंडित बीमार हो गया और औरंगजेब को गीता सुनाने के लिए उसने अपने बेटे को भेज दिया परन्तु उसे बताना भूल गया कि उसे किन-किन श्लोकों का अर्थ राजा को नहीं बताना. पंडित के बेटे ने जाकर औरंगजेब को पूरी गीता का अर्थ सुना दिया. गीता का पूरा अर्थ सुनकर औरंगजेब को यह ज्ञान हो गया कि प्रत्येक धर्म अपने आपमें महान है किन्तु औरंगजेब की हठधर्मिता थी कि उसे अपने धर्म के धर्म के अतिरिक्त किसी दूसरे धर्म की प्रशंसा सहन नहीं थी.
औरंगजेब ने सबको इस्लाम धर्म अपनाने का आदेश दे दिया और संबंधित अधिकारी को यह कार्य सौंप दिया. औरंगजेब ने कहा, “‘सबसे कह दो या तो इस्लाम धर्म कबूल करें या मौत को गले लगा लें.” इस प्रकार की ज़बरदस्ती शुरू हो जाने से अन्य धर्म के लोगों का जीवन कठिन हो गया.
जुल्म से ग्रस्त कश्मीर के पंडित गुरु तेगबहादुर के पास आए और उन्हें बताया कि किस प्रकार इस्लाम को स्वीकार करने के लिए अत्याचार किया जा रहा है, यातनाएं दी जा रही हैं. और उनसे अपने धर्म को बचाने की गुहार लगाई.
तत्पश्चात गुरु तेगबहादुर जी ने पंडितों से कहा कि आप जाकर औरंगजेब से कह दें कि यदि गुरु तेगबहादुर ने इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया तो उनके बाद हम भी इस्लाम धर्म ग्रहण कर लेंगे और यदि आप गुरु तेगबहादुर जी से इस्लाम धारण नहीं करवा पाए तो हम भी इस्लाम धर्म धारण नहीं करेंगे’. औरंगजेब ने यह स्वीकार कर लिया.
गुरु तेगबहादुर दिल्ली में औरंगजेब के दरबार में स्वयं गए. औरंगजेब ने उन्हें बहुत से लालच दिए, पर गुरु तेगबहादुर जी नहीं माने तो उन पर ज़ुल्म किए गये, उन्हें कैद कर लिया गया, दो शिष्यों को मारकर गुरु तेगबहादुर जी को ड़राने की कोशिश की गयी, पर वे नहीं माने. उन्होंने औरंगजेब से कहा- ‘यदि तुम ज़बरदस्ती लोगों से इस्लाम धर्म ग्रहण करवाओगे तो तुम सच्चे मुसलमान नहीं हो क्योंकि इस्लाम धर्म यह शिक्षा नहीं देता कि किसी पर जुल्म करके मुस्लिम बनाया जाए.’
गुरुद्वारा शीश गंज साहिब
औरंगजेब यह सुनकर आगबबूला हो गया. उसने दिल्ली के चांदनी चौक पर गुरु तेगबहादुर जी का शीश काटने का हुक्म ज़ारी कर दिया और गुरुतेग बहादुर जी ने हंसते-हंसते बलिदान दे दिया. गुरुतेग बहादुर जी की याद में उनके ‘शहीदी स्थल’ पर गुरुद्वारा बना है, जिसका नाम गुरुद्वारा ‘शीश गंज साहिब’ है.
गुरु तेग बहादुर जी की बहुत सी रचनाएं ग्रंथ साहब के महला 9 में संग्रहित हैं. इन्होंने शुद्ध हिन्दी में सरल और भावयुक्त ‘पदों’ और ‘साखी’ की रचनायें की. उनके अद्वितीय बलिदान ने देश की ‘सर्व धर्म सम भाव’ की संस्कृति को सुदृढ़ बनाया और धार्मिक, सांस्कृतिक, वैचारिक स्वतंत्रता के साथ निर्भयता से जीवन जीने का मंत्र भी दिया.
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