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पृथ्वी की तीसरी आंख और तीर्थों का सम्राट माने जाने वाले पुष्कर राज का सालाना मेला आज से शुरू हो गया. देश के हिंदू तीर्थस्थानों में पुष्कर का अलग ही महत्व है. यह महत्व इसलिए बढ़ जाता है कि यह अपने आप में दुनिया में अकेली जगह है जहां ब्रह्मा की पूजा की जाती है.
पुष्कर मेला 2011
कार्तिक पूर्णिमा महास्नान से 10 नवंबर को धार्मिक मेला शुरू हुआ है. पुष्कर मेला कार्तिक माह में शुक्ल पक्ष की अष्टमी से शुरू होता है और पूर्णिमा तक चलता है.
महाभारत में पुष्कर राज के बारे में लिखा है कि तीनों लोकों में मृत्यु लोक महान है और मृत्यु लोक में देवताओं का सर्वाधिक प्रिय स्थान पुष्कर है. चारों धामों की यात्रा करके भी यदि कोई व्यक्ति पुष्कर सरोवर में डुबकी नहीं लगाता है तो उसके सारे पुण्य निष्फल हो जाते हैं. लोक प्रचलित मान्यता भी इस धारणा को पुष्ट करती है. कहा गया है कि सारे तीरथ बार-बार पुष्कर तीरथ एक बार. यही कारण है कि तीर्थ यात्री चारो धामों की यात्रा के बाद पुष्कर की यात्रा जरूर करते हैं. तीर्थ राज पुष्कर को पृथ्वी का तीसरा नेत्र भी माना जाता है. पुष्कर को तीर्थों का सम्राट और तीर्थ गुरू नाम से भी जाना जाता है.
पावन भूमि है पुष्कर
पद्म पुराण में भी ऐसा उल्लेख मिलता है कि संसार के रचयिता ब्रह्माजी ने नीचे की तरफ एक पुष्प गिराया था. यह पुष्प जिन स्थानों पर गिरा वे ब्रह्मा पुष्कर, विष्णु पुष्कर तथा शिव पुष्कर के नाम से प्रसिद्ध हुए. सुहृदय नाग पर्वतमाला जो अपने आंचल में पुष्कर को समेटे है कभी अगस्त्य, विश्वामित्र कपिल तथा कण्व ऋषि-मनीषियों की तपस्या एवं हवन स्थली रही है.
पुष्कर की स्थिति और सृष्टि के संबंध में अनेक मत होने के उपरांत भी श्रद्धालुओं के मन में पुष्कर राज के प्रति जो आस्था है किंचित भी नहीं डिग पाती. कोई इसे सृष्टि की रचना से पूर्व ही विद्यमान मानकर आदि तीर्थ के नाम से तो कोई विश्व रचियता ब्रह्माजी का विश्व में एक मात्र तीर्थस्थली होने के प्रभाव से तीर्थ गुरु के नाम से पुकारता है.
एकमात्र ब्रह्मा मंदिर
पुष्कर नगरी में विश्व का एकमात्र ब्रह्मा मंदिर है तो दूसरी तरफ दक्षिण स्थापत्य शैली पर आधारित रामानुज संप्रदाय का विशाल वैकुंठ मंदिर है. इनके अलावा सावित्री मंदिर, वराह मंदिर के अलावा अन्य कई मंदिर हैं.
पशु मेला
कार्तिक के महीने में यहां लगने वाला ऊंट मेला दुनिया में अपनी तरह का अनूठा तो है ही, साथ ही यह भारत के सबसे बडे पशु मेलों में से भी एक है. मेले के समय पुष्कर में कई संस्कृतियों का मिलन सा देखने को मिलता है. एक तरफ तो मेला देखने के लिए विदेशी सैलानी बड़ी संख्या में पहुंचते हैं, तो दूसरी तरफ राजस्थान व आसपास के तमाम इलाकों से आदिवासी और ग्रामीण लोग अपने-अपने पशुओं के साथ मेले में शरीक होने आते हैं. मेला रेत के विशाल मैदान में लगाया जाता है. आम मेलों की ही तरह ढेर सारी कतार की कतार दुकानें, खाने-पीने के स्टाल, सर्कस, झूले और न जाने क्या-क्या. ऊंट मेला और रेगिस्तान की नजदीकी है इसलिए ऊंट तो हर तरफ देखने को मिलते ही हैं. लेकिन कालांतर में इसका स्वरूप एक विशाल पशु मेले का हो गया है, इसलिए लोग ऊंट के अलावा घोडे, हाथी, और बाकी मवेशी भी बेचने के लिए आते हैं. सैलानियों को इन पर सवारी का लुत्फ मिलता है सो अलग. लोक संस्कृति व लोक संगीत का शानदार नजारा देखने को मिलता है.
कार्तिक स्नान
मेला स्थल से परे पुष्कर नगरी का माहौल एक तीर्थनगरी सरीखा होता है. कार्तिक में स्नान का महत्व हिंदू मान्यताओं में वैसे भी काफी ज्यादा है. इसलिए यहां साधु भी बडी संख्या में नजर आते हैं. मेले के शुरुआती दिन जहां पशुओं की खरीद-फरोख्त पर जोर रहता है, वहीं बाद के दिनों में पूर्णिमा पास आते-आते धार्मिक गतिविधियों का जोर हो जाता है. श्रद्धालुओं के सरोवर में स्नान करने का सिलसिला भी पूर्णिमा को अपने चरम पर होता है.
पुष्कर मेले के दौरान इस नगरी में आस्था और उल्लास का अनोखा संगम देखा जाता है. पुष्कर को इस क्षेत्र में तीर्थराज कहा जाता है और पुष्कर मेला राजस्थान का सबसे बड़ा मेला माना जाता है. पुष्कर मेले की प्रसिद्धि का अनुमान इस बात से ही लगाया जा सकता है कि ऐतिहासिक धरोहरों के रूप में ताजमहल का जो दर्जा विदेशी सैलानियों की नजर में है, ठीक वही महत्व त्यौहारों से जुडे पारंपरिक मेलों में पुष्कर मेले का है.
पुष्प से बना पुष्कर
पुष्कर को इस क्षेत्र में तीर्थराज कहे जाने का गौरव इसलिए प्राप्त है क्योंकि यहां समूचे ब्रह्मांड के रचयिता माने जाने वाले ब्रह्मा जी का निवास है. पुष्कर के महत्व का वर्णन पद्मपुराण में मिलता है. इसके अनुसार एक समय ब्रह्मा जी को यज्ञ करना था. उसके लिए उपयुक्त स्थान का चयन करने के लिए उन्होंने धरा पर अपने हाथ से एक कमल पुष्प गिराया. वह पुष्प अरावली पहाडियों के मध्य गिरा और लुढकते हुए दो स्थानों को स्पर्श करने के बाद तीसरे स्थान पर ठहर गया. जिन तीन स्थानों को पुष्प ने धरा को स्पर्श किया, वहां जलधारा फूट पडी और पवित्र सरोवर बन गए. सरोवरों की रचना एक पुष्प से हुई, इसलिए इन्हें पुष्कर कहा गया. प्रथम सरोवर कनिष्ठ पुष्कर, द्वितीय सरोवर मध्यम पुष्कर कहलाया. जहां पुष्प ने विराम लिया वहां एक सरोवर बना, जिसे ज्येष्ठ पुष्कर कहा गया. ज्येष्ठ पुष्कर ही आज पुष्कर के नाम से विख्यात है.
ब्रह्मा जी का यज्ञ
ज्येष्ठ पुष्कर नामक सरोवर के तट पर ब्रह्मा जी ने यज्ञ संपन्न किया था. उस पौराणिक स्थल पर आज भगवान ब्रह्मा जी का मंदिर स्थित है. इस मंदिर के कारण ही पुष्कर को तीर्थराज कहा जाता है. पुष्कर स्थित ब्रह्मा जी का मंदिर देश में एकमात्र मंदिर है जहां जगत पिता ब्रह्मा की पूजा होती है. इस संदर्भ में भी एक मिथक प्रचलित है. इसके अनुसार यज्ञ अनुष्ठान के दौरान जब आहुति देने का समय आया तो पुरोहित ने उनसे पत्नी को आमंत्रित करने के लिए कहा. क्योंकि पत्नी के बिना यज्ञ पूर्ण नहीं होता. किंतु उनकी पत्नी सावित्री उस समय वहां नहीं पहुंच सकीं. तब उन्होंने इंद्र के कहने पर गायत्री नाम की एक कन्या का पत्नी के रूप में वरण किया और अपने वाम अंग में बैठा कर यज्ञ संपन्न किया.
इसी बीच सावित्री वहां पहुंच गईं. अपने स्थान पर किसी अन्य स्त्री को देख वह रुष्ट हो गईं और ब्रह्मा जी को शाप देकर रत्नागिरी पहाड़ी पर चली गईं. उस शाप के कारण ही ब्रह्मा जी की पूजा अन्य किसी स्थान पर नहीं होती. रत्नागिरी पहाड़ी पर आज सावित्री मंदिर स्थित है. कहते हैं सर्वप्रथम ब्रह्मा मंदिर का जीर्णोद्धार आदि शंकराचार्य ने करवाया था. कालांतर में वह प्राचीन मंदिर आक्रांताओं द्वारा ध्वस्त कर दिया गया था.
ब्रह्मा मंदिर के अलावा यहां महादेव मंदिर, वाराह मंदिर, रंग जी मंदिर और वैकुंठ मंदिर प्रमुख हैं. पुष्कर में मंदिरों की कुल संख्या लगभग चार सौ है. इसीलिए इसे मंदिर नगरी भी कहा जाता है.
चार धाम के बाद पुष्कर
कई आस्थावान लोग पुष्कर परिक्रमा भी करते हैं. सुबह और शाम के समय यहां आरती होती है. वह दृश्य अत्यंत मनोहारी होता है. इतनी विशेषताओं के कारण पुष्कर को तीर्थराज कहने के अलावा देश का पांचवां धाम भी कहा जाता है. मान्यता है कि चारधाम की यात्रा के बाद पुष्कर में ब्रह्मा जी का दर्शन अवश्य करना चाहिए, तभी यात्रा पूरी मानी जाती है.
पुष्कर सरोवर में कार्तिक पूर्णिमा पर पर्व स्नान का बडा महत्व माना गया है. क्योंकि कार्तिक पूर्णिमा पर ही ब्रह्मा जी का वैदिक यज्ञ संपन्न हुआ था. तब यहां संपूर्ण देवी-देवता एकत्र हुए थे. उस पावन अवसर पर पर्व स्नान की परंपरा सदियों से चली आ रही है.
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