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कुर्बानी को हर धर्म और शास्त्र में भगवान को पाने का सबसे प्रबल हथियार माना जाता है. हिंदू धर्म में जहां हम कुर्बानी को त्याग से जोड़ कर देखते हैं वहीं मुस्लिम धर्म में कुर्बानी का अर्थ है खुद को खुदा के नाम पर कुर्बान कर देना यानि अपनी सबसे प्यारी चीज का त्याग करना. इसी भावना को उजागर करता है मुस्लिम धर्म का महत्वपूर्ण त्यौहार ईद-उल-जुहा जिसे हम बकरीद के नाम से भी जानते हैं. ईद-उल-जुहा मुसलमान कैलेंडर का एक महत्वपूर्ण त्यौहार है.
इस त्यौहार को मनाने के पीछे भी एक कहानी है जो दिल को छू जाती है. हजरत इब्राहिम द्वारा अल्लाह के हुक्म पर अपने बेटे की कुर्बानी देने के लिए तत्पर हो जाने की याद में इस त्यौहार को मनाया जाता है. हजरत इब्राहिम को पैगंबर के रूप में जाना जाता है जो अल्लाह के सबसे करीब हैं. उन्होंने त्याग और कुर्बानी का जो उदाहरण विश्व के सामने पेश किया वह अद्वितीय है.
इस्लाम के विश्वास के मुताबिक अल्लाह हजरत इब्राहिम की परीक्षा लेना चाहते थे और इसीलिए उन्होंने उनसे अपनी सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी देने के लिए कहा.
हजरत इब्राहिम को लगा कि उन्हें सबसे प्रिय तो उनका बेटा है इसलिए उन्होंने अपने बेटे की ही बलि देना स्वीकार किया. हजरत इब्राहिम को लगा कि कुर्बानी देते समय उनकी भावनाएं आड़े आ सकती हैं, इसलिए उन्होंने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली थी. जब अपना काम पूरा करने के बाद पट्टी हटाई तो उन्होंने अपने पुत्र को अपने सामने जिन्दा खड़ा हुआ देखा. बेदी पर कटा हुआ मेमना पड़ा हुआ था. तभी से इस मौके पर बकरे और मेमनों की बलि देने की प्रथा है. कुछ जगह लोग ऊंटों की भी बलि देते हैं.
कुर्बानी
इस अवसर पर आनन्दपूर्ण उत्सव व संतुलित धार्मिक अनुष्ठान किए जाते हैं. विश्वास की इस परीक्षा के सम्मान में दुनियाभर के मुसलमान इस अवसर पर अल्लाह में अपनी आस्था दिखाने के लिए जानवरों की कुर्बानी देते हैं.
कुर्बानी में ज्यादातर बकरों की कुर्बानी दी जाती है. बकरा तन्दुरुस्त और बगैर किसी ऐब का होना चाहिए. यानी उसके बदन के सारे हिस्से वैसे ही होने चाहिए जैसे खुदा ने बनाए हैं. अल्लाह का नाम लेकर जानवर को क़ुर्बान किया जाता है. इसी कुर्बानी और गोश्त को हलाल कहा जाता है. इस गोश्त के तीन बराबर हिस्से किए जाते हैं, एक हिस्सा खुद के लिए, एक दोस्तों और रिश्तेदारों के लिए और तीसरा हिस्सा गरीबों और मिस्कीनों के लिए.
जिस तरह ईद-उल-फितर को गरीबों में पैसा दान के रूप में बांटा जाता है उसी तरह बकरीद को गरीबों में मांस बांटा जाता है. यह इस्लाम की खासियत है कि वह अपने किसी भी पर्व में समाज के कमजोर और गरीब तबके को भूलते नहीं हैं बल्कि उनकी मदद करना उनके धर्म का एक अभिन्न अंग है.
यह पर्व जहां सबको साथ लेकर चलने की सीख देता है वहीं बकरीद यह भी सिखाती है कि सच्चाई की राह में अपना सब कुछ कुर्बान करने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए.
दिखावा होने लगा है पर्व
आज इस पर्व में मंहगे जानवरों की बलि देने का ट्रेंड चल पड़ा है. आज 10,000 से लेकर एक लाख तक के बकरों को कुर्बानी के नाम पर खरीदा और काटा जाता है. जबकि इस्लाम के मुताबिल बकरा चाहे कितने का हो कोई फर्क नहीं पड़ता. बस वह स्वस्थ होना चाहिए. फिर चाहे वह एक हजार का हो या एक लाख का.
क्या यह तार्किक है?
एक बड़ा सवाल इस त्यौहार के खिलाफ यह है कि क्या किसी की बलि देकर, किसी को मारकर आप अपने भगवान को पा सकते हैं? बलि की परंपरा तो हिंदू धर्म में भी है पर इतनी बड़ी संख्या में शायद ही किसी पर्व में जानवरों को मारा जाता है. इस्लाम धर्म बहुत महान है जो वह गरीबों को अपनी हर खुशी का हिस्सा मानता है पर पशु भी तो अल्लाह के ही बनाए हुए हैं फिर उनकी कुर्बानी क्यूं. यह दुनिया शाकाहार से जितनी सुंदर दिखती है उतनी ही बदसूरत यह मांसाहर की वजह से लगती है.
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खैर अगर यह परंपरा है तो इसे कायम रखना ही चाहिए. लेकिन इस परंपरा का दिखावा और इसे फैलाना नहीं चाहिए. हर जीव को जीने का अधिकार है जिसे छीना नहीं जाना चाहिए. बकरीद या ईद-उल-जुहा का मुख्य संदेश है कि आपको सच्चाई की राह पर कुछ भी न्यौछावर करने के लिए तैयार रहना चाहिए.
जागरण जंक्शन के सभी पाठकों को बकरीद की हार्दिक शुभकामनाएं.
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