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इस संसार में अगर भगवान से भी अधिक ऋण किसी का हम पर होता है तो वह है हमारे माता-पिता का ऋण. हमारे माता-पिता ही हमारे लिए हमारा पूरा संसार होते हैं. गणेश जी ने अपने माता-पिता के चारों तरफ चक्कर लगाकर यह सिद्ध किया था कि माता-पिता के ईर्द-गिर्द ही हमारी पूरी दुनिया है. आज के समय में भी लोग अपने माता-पिता और पूर्वजों को अपनी यादों में बसा कर रखते हैं. भारतीय संस्कृति में पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन की परम्परा है. श्रद्धापूर्वक मृतकों के निमित्त किए जाने वाले इस कर्म को श्राद्ध कहा जाता है और इस श्राद्ध को करने का सबसे सही समय पितृपक्ष को माना जाता है.
अपने पितरों को श्रद्धापूर्वक तर्पण देने का पर्व पितृ पक्ष कहलाता है. पितरों से तात्पर्य मृत पूर्वजों से है यानी लौकिक संसार से जा चुके माता, पिता, दादा, दादी, नाना, नानी आदि. शास्त्रों में इस पर्व का विशेष महत्व बताया गया है जिसमें संतानों से मिला तर्पण सीधे पुरखों को मिल जाता है.
शास्त्रों में पितृपक्ष की महिमा
मान्यता है कि आश्विन मास के कृष्णपक्ष में यमराज सभी पितरों को अपने यहां से छोड़ देते हैं, ताकि वे अपनी संतान से श्राद्ध के निमित्त भोजन कर सकें. इस माह में श्राद्ध न करने वालों के अतृप्त पितर उन्हें श्राप देकर पितृलोक चले जाते हैं और आने वाली पीढ़ियों को भारी कष्ट उठाना पड़ता है.
गरुड़ पुराण में कहा गया है कि आयु: पुत्रान यश: स्वर्ग कीर्ति पुष्टि बलं श्रियम्, पशून सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृजूननात अर्थात श्राद्ध कर्म करने से संतुष्ट होकर पितर मनुष्यों के लिए आयु, पुत्र, यश, मोक्ष, स्वर्ग कीर्ति, पुष्टि, बल, वैभव, पशुधन, सुख, धन व धान्य वृद्धि का आशीष प्रदान करते हैं.
यमस्मृति में लिखा है कि पिता, दादा, परदादा तीनों श्राद्ध की ऐसे आशा रखते हैं, जैसे वृक्ष पर रहते हुए पक्षी वृक्षों में लगने वाले फलों की. ब्राह्मण को पृथ्वी का भूदेव कहा गया है. उसकी जठराग्नि कव्य को पितरों तक पहुंचाने का कार्य करती है. पितृ जिस योनि में हों उसी रूप में अन्न उन्हें मिल जाता है. इसलिए ब्राह्मण को भोजन कराने व दक्षिणा देकर संतुष्ट करने का भी विधान है.
पितृपक्ष 2011
इस बार पितृपक्ष का आरंभ पूर्णिमा 12 सितंबर से है जो 27 सितंबर तक चलेगा. इसमें जिस तिथि में पूर्वजों का निधन होता है उसी तिथि पर पिंडदान किया जाता है. इससे मृत आत्मा को शांति प्राप्त होती है. पिंडदान खीर, खोए और जौ के आटे का किया जा सकता है. इसमें खीर का पिंडदान सर्वश्रेष्ठ होता है.
पितृपक्ष के समय पूजा अर्चना की विधि
श्राद्ध के दौरान घर का मुखिया सूर्यमुख होकर बडी श्रद्धा से अपने पितरों का स्मरण करता है और कुश के सहारे अपनी अंजुलि से उन्हें जल का तर्पण करता है. तर्पण में फल, फूल, दूब, चावल आदि का भी प्रयोग किया जाता है. श्राद्ध करने वाला ब्राह्मणों और गरीबों को अपने अनुसार दूध, दही, घी व शहद आदि से तैयार भोजन कराता है.
कौवों को खाना
कौवे को अन्य पक्षियों की अपेक्षा तुच्छ माना गया है, किंतु श्राद्धपक्ष में दही में डुबोकर पूरियां सबसे पहले उसी को दी जाती हैं. कौवे एवं पीपल को पितरों का प्रतीक माना गया है.
क्या करें
पितृ श्राद्ध अपराह्य काल में करें. धनलोलुपता छोड़कर आवश्यक वस्तुएं दान करें, शुद्ध कुशा व जौ काले तिलों का प्रयोग करें. नमक गुड़, तिल, चावल, वस्त्र, घी, स्वर्ण, भूमि व गौ आदि का दान करें और ब्रह्मचर्य का पालन करें. श्राद्धकर्ता को श्राद्ध में लोहे के पात्र का प्रयोग नहीं करना चाहिए. सफेद चंदन और सफेद पुष्प का प्रयोग करें, जबकि कुत्तों द्वारा देखे गये भोजन का त्याग करें.
क्या ना करें
शाम व रात्रि के समय श्राद्ध करना वर्जित है.
पितृपक्ष और श्राद्ध भारतीय समाज में परिवार के महत्व को उजागर करते हैं. भारत की समाजिक सरंचना में परिवार अहम स्थान रखता है. यहां हर इंसान अपने परिवार से ना सिर्फ जीवित होने तक जुड़ा रहता है बल्कि मृत्यु के बाद भी वह अपने परिवार वालों के पास ही रहता है और उसके परिवार वाले भी मृत्यु के बाद भी उसका ऋण नहीं भूलते.
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