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‘स्वराज हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है’ का नारा देने वाले जनता के नेता लोकमान्य तिलक की आज पुण्यतिथि है. देश के पहले राष्ट्रीय नेता के रूप में उभरने वाले बाल गंगाधर तिलक को लोग “लोकमान्य” की उपाधि देते थे. देश को आजाद कराने और जनता की सेवा के लिए उन्होंने कई अवस्मरणीय कार्य किए हैं. एक नेता होने के साथ वह एक प्रखर लेखक भी थे जिन्होंने “केसरी” जैसे क्रांतिकारी समाचार पत्र का संचालन किया था.
बाल गंगाधर का जन्म 23 जुलाई, 1856 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी में हुआ था. उनका बचपन का नाम केशव बाल गंगाधर तिलक था. बचपन से ही देशप्रेम की भावना उनमें कूटकूट कर भरी थी. प्रारम्भिक शिक्षा मराठी में प्राप्त करने के बाद गंगाधर को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने के लिए पूना भेजा गया. उन्होंने डेक्कन कॉलेज से स्नातक की पढ़ाई पूरी की. उनका सार्वजनिक जीवन 1880 में एक शिक्षक और शिक्षक संस्था के संस्थापक के रूप में आरम्भ हुआ. इसके बाद ‘केसरी’ और ‘मराठा’ जैसे समाचार पत्र उनकी आवाज के पर्याय बन गए.
बाल गंगाधर तिलक समाज कल्याण के लिए शिक्षा पर जोर देते थे और इसके लिए उन्होंने खुद भी कई कदम उठाए थे. अपने समाचारपत्र के द्वारा उन्होंने अपनी आवाज और भारतीय संस्कृति को देश के कोने-कोने में फैलाने का निश्चय लिया था. 1890 में राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ते समय वह पार्टी के नरमपंथी विचारों के काफी खिलाफ थे.
1894 में तिलक के प्रयासों से गणेश पूजन को सार्वजनिक गणेशोत्सव का रुप मिला और 1895 में उन्होंने शिवाजी जयंती को शिवाजी स्मरणोत्सव के नाम से एक सामाजिक त्यौहार घोषित कर दिया. उसी समय से शिवाजी के जन्मदिवस और राज्याभिषेक पर भी समारोह मनाए जाने लगे.
1896-97 में महाराष्ट्र में प्लेग नामक एक महामारी फैली और इस दौरान लोकमान्य तिलक जी ने खुद आगे आते हुए राहत कार्य किया. लेकिन वह महामारी के दौरान हुए ब्रिटिश प्रशासन की उपेक्षापूर्ण रवैये की सख्त आलोचना भी करते रहे. राहत कार्यो के दौरान लोगो से बदसलूकी के लिए कुख्यात अंग्रेजी अफसर रैंड की हत्या के बाद ‘केसरी’ और ‘मराठा’ में छपे लेखों और आलोचनाओं के चलते तिलक पर राजद्रोह का आरोप लगाकर गिरफ्तार कर लिया गया और एक साल की कैद की सजा दी गई. जेल से छूटने के बाद तिलक समाचार पत्रों के प्रकाशन में पुन: लग गए.
भारत के वाइसरॉय लॉर्ड कर्ज़न ने जब सन 1905 ई. में बंगाल का विभाजन किया, तो तिलक ने बंगालियों द्वारा इस विभाजन को रद्द करने की मांग का ज़ोरदार समर्थन किया और ब्रिटिश वस्तुओं के बहिष्कार की वक़ालत की, जो जल्दी ही एक देशव्यापी आंदोलन बन गया.
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नरम दल के लिए तिलक के विचार उग्र थे. नरम दल के लोग छोटे सुधारों के लिए सरकार के पास वफ़ादार प्रतिनिधिमंडल भेजने में विश्वास रखते थे. तिलक का लक्ष्य स्वराज था, छोटे- मोटे सुधार नहीं और उन्होंने कांग्रेस को अपने उग्र विचारों को स्वीकार करने के लिए राज़ी करने का प्रयास किया. इस मामले पर सन 1907 ई. में कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में नरम दल के साथ उनका संघर्ष भी हुआ. मामला इतना गरमाया कि नरम दल के नेताओं ने तिलक और उनके सहयोगियों को पार्टी से बाहर कर दिया. राष्ट्रवादी शक्तियों में फूट का लाभ उठाकर सरकार ने तिलक पर राजद्रोह और आतंकवाद फ़ैलाने का आरोप लगाकर उन्हें छह वर्ष के कारावास की सज़ा दे दी.
कैद से वापस आकर 1914 में तिलक ने दुबारा सक्रिय राजनीति में हिस्सा लेना शुरु किया. 1916-18 में ऐनी बेसेंट और मुहम्मद अली जिन्ना के साथ अखिल भारतीय होम रुल लीग की स्थापना की. इसी दौरान वह दुबारा कांग्रेस पार्टी के साथ जुड़े.
“स्वराज हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा” के नारे के साथ बाल गंगाधर तिलक ने इंडियन होमरूल लीग की स्थापना की. सन 1916 में मुहम्मद अली जिन्ना के साथ लखनऊ समझौता किया, जिसमें आज़ादी के लिए संघर्ष में हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रावधान था.
अपने राजनैतिक कार्यों से अधिक तिलक अपने समाज सेवा के कार्यों के लिए जनता में प्रसिद्ध थे. लोग उन्हें अपना नेता मानते थी. शिक्षा को समाज कल्याण का एक अहम हिस्सा मानने वाले तिलक ने डक्कन एजुकेशन सोसाइटी का गठन किया जिसके सदस्यों का मुख्य कार्य शिक्षा को फैलाना था.
देश के इस महान नेता ने 01 अगस्त, 1920 को अपनी आखिरी सांसें लीं. उनकी मौत से दुखी होकर महात्मा गांधी ने उन्हें आधुनिक भारत का निर्माता और नेहरू जी ने भारतीय क्रांति के जनक की उपाधि दी थी.
आज हमारे बीच लोकमान्य तिलक नहीं हैं लेकिन उनकी शिक्षा और उनके वचन आज भी हर भारतवासी को जोश से भर देते हैं.
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