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आज जीवन बहुत ही तेज हो गया है. हर किसी को जीने की बहुत जल्दी होती है और इस जल्दी में उसे खुद के कामों से ही फुर्सत नहीं होती तो भला वह दूसरों की क्या सोचेगा और यही कारण है कि आजकल समाज सेवकों में स्त्रियों की संख्या पुरुषों से अधिक है. लेकिन समय हमेशा एक सा नहीं था. एक समय ऐसा भी था जब भारत में ऐसे महान लोग थे जो दूसरों के अधिकार और भलाई के लिए अपने प्राणों की भी परवाह नहीं करते थे. हमारे देश को आजादी दिलाने में ऐसे लोगों का विशेष सहयोग रहा है. ऐसे ही एक महापुरुष थे भारतीय जनसंघ के संस्थापक और कश्मीर मुद्दे पर अपनी आवाज बुलंद करने वाले डॉ.श्यामाप्रसाद मुखर्जी (Dr.Shyama Prasad Mukherjee).
6 जुलाई, 1901 को कोलकाता (Kolkata) के अत्यन्त प्रतिष्ठित परिवार में जन्में डॉ॰ श्यामाप्रसाद मुखर्जी (Dr.Shyama Prasad Mukherjee) जी के पिता श्री आशुतोष मुखर्जी (Ashutosh Mukherjee) बहुमुखी प्रतिभा के धनी एवं शिक्षाविद् के रूप में विख्यात थे. अपने पिता की तरह ही श्यामाप्रसाद मुखर्जी में भी बहुमुखी प्रतिभा थी.
कुशाग्र बुद्धि और प्रतिभा सम्पन्न डॉ मुखर्जी ने 1917 में मैट्रिक तथा 1921 में बी. ए. की उपाधि प्राप्त की, जिसके पश्चात् 1923 में उन्होंने लॉ (Law) की उपाधि अर्जित की और 1926 में वे इंग्लैण्ड (England) से बैरिस्टर बन स्वदेश लौटे. उन्होंने अपने ज्ञान और विचारों से तथा तात्कालिक परिदृश्य की ज्वलंत परिस्थितियों का इतना सटीक विश्लेषण किया कि समाज के हर वर्ग और तबके के बुद्धिजीवियों को उनकी बुद्धि का कायल होना पड़ा. अपनी कुशाग्र बुद्धिमत्ता का परिचय देते हुए मात्र 33 वर्ष की अल्पायु में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय (Kolkata University) के कुलपति का पदभार संभालने की जिम्मेदारी उठा ली.
अपनी सूझबूझ और देश के ताजा हालातों को ध्यान में रखकर उन्होंने कई कार्य किए जिसकी वजह से उनकी देश में काफी अच्छी पहचान बन गई थी. एक राजनैतिक दल (Political Party) की मुस्लिम तुष्टिकरण नीति (Muslim Appeasement Policy) के कारण जब बंगाल (Bengal) की सत्ता मुस्लिम लीग (Muslim League) की गोद में डाल दी गई और 1938 में आठ प्रदेशों में अपनी सत्ता छोड़ने की आत्मघाती और देश विरोधी नीति अपनाई गई तब डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने स्वेच्छा से देशप्रेम और राष्ट्रप्रेम का अलख जगाने के उद्देश्य से राजनीति में प्रवेश किया.
डॉ मुखर्जी ने संसद में सदैव राष्ट्रीय एकता (National Integrity) की स्थापना को ही अपना प्रथम लक्ष्य रखा. संसद में दिए अपने भाषण में उन्होंने पुरजोर शब्दों में कहा था कि राष्ट्रीय एकता के धरातल पर ही सुनहरे भविष्य की नींव रखी जा सकती है. उन्होंने आजादी के बाद 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना की.
इसी समय उन्होंने कश्मीर का दौरा किया और वहां से धारा 370 हटाने की मांग की. दरअसल उस समय जम्मू कश्मीर (Jammu-Kashmir) का अलग झंडा था, अलग संविधान (Constitution) था. वहां का मुख्यमंत्री (Chief Minister) प्रधानमंत्री (Prime minister) कहलाता था. लेकिन डॉ मुखर्जी जम्मू कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाना चाहते थे जिसके लिए उन्होंने जोरदार नारा भी बुलंद किया कि – “एक देश में दो निशान, एक देश में दो प्रधान, एक देश में दो विधान नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगें.”
अगस्त 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त किया था कि “या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊंगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपना जीवन बलिदान कर दूंगा.” जम्मू कश्मीर (Jammu-kashmir) में प्रवेश करने पर डॉ. मुखर्जी को 11 मई, 1953 को शेख अब्दुल्ला (Shekh Abdulla) के नेतृत्व वाली सरकार ने हिरासत में ले लिया था. क्योंकि उन दिनों कश्मीर में प्रवेश करने के लिए भारतीयों को एक प्रकार से पासपोर्ट (Passport) टाइप का परमिट लेना पडता था और डॉ मुखर्जी बिना परमिट (Permit) लिए जम्मू कश्मीर चले गए थे. वहां उन्हें गिरफ्तार कर नजरबंद कर लिया गया और गिरफ्तार होने के कुछ दिन बाद ही 23 जून, 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई.
वे भारत के लिए शहीद हो गए और भारत ने एक ऐसा व्यक्तित्व (Personality) खो दिया जो राजनीति को एक नई दिशा दे सकता था. डॉ. मुखर्जी इस धारणा के प्रबल समर्थक थे कि सांस्कृतिक दृष्टि (Cultural Aspect) से हम सब एक हैं, इसलिए धर्म के आधार पर किसी भी तरह के विभाजन (Division) के वे सख्त खिलाफ थे.
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