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युवाओं के प्रेरणास्त्रोत स्वामी विवेकानंद (Profile of Swami Vivekananda)

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जीवन में हमेशा अच्छे आदर्शों को चुनो और उसी पर अमल करो.

समुद्र को देखो नाकि उसकी लहरों को.


भारतीय अध्यात्म और संस्कृति को विश्व में अभूतपूर्व पहचान दिलाने का सबसे बड़ा श्रेय अगर किसी को जाता है तो वह हैं  स्वामी विवेकानंद 11 सितंबर, 1893 को स्वामी विवेकानंद (Swami Vivekananda) ने शिकागो पार्लियामेंट ऑफ रिलीजन (Parliament of the World’s Religions at Chicago) में जो भाषण दिया था उसे आज भी लोग याद करते हैं. भारतीय संस्कृति को विश्व स्तर पर पहचान दिलाने वाले विवेकानंद जी (Swami Vivekananda) का जन्म 12 जनवरी, सन्‌ 1863 को हुआ. उनका घर का नाम नरेंद्र दत्त (Narendranath Dutta) था. पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखने वाले उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त अपने पुत्र को भी अंग्रेजी पढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता के ढंग पर ही चलाना चाहते थे.


Swami Vivekanandaबालक नरेंद्र (Narendranath) की बुद्धि बचपन से बड़ी तीव्र थी और परमात्मा को पाने की उनमें प्रबल लालसा थी. और अपने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे पहले ब्रह्म समाज में गए किंतु वहां उनके चित्त को संतोष नहीं हुआ. कुछ समय बाद रामकृष्ण परमहंस (Ramkrishna Paramhansa) की प्रशंसा सुनकर नरेंद्र तर्क करने के विचार से उनके पास गए लेकिन उनके विचारों और सिद्धांतों से प्रभावित हो उन्हें अपना गुरू मान लिया. परमहंस (Paramhansa) जी की कृपा से इन्हें आत्म-साक्षात्कार हुआ जिसके फलस्वरूप कुछ समय बाद वह परमहंसजी के शिष्यों में प्रमुख हो गए.


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संन्यास लेने के बाद इनका नाम विवेकानंद (Vivekananda) हुआ. 25 वर्ष की अवस्था में नरेंद्र दत्त ने गेरुआ वस्त्र पहन लिया. तत्पश्चात उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की. सन्‌ 1893 में शिकागोमें  विश्व धर्म परिषद्  हो रही थी. स्वामी विवेकानंद जी उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप से पहुंचे. यूरोप व  अमेरिका  में  लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत हीन दृष्टि से देखते थे. वहां लोगों  ने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानंद को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का समय ही न मिले. एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा समय मिला किंतु उनके विचार सुनकर सभी विद्वान चकित हो गए.


Swami Vivekanandaफिर तो अमेरिका में उनका बहुत स्वागत हुआ. वहां इनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय हो गया. तीन वर्ष तक वे अमेरिका में ही रहे और वहां के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान करते रहे.


अध्यात्म विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा’ यह स्वामी विवेकानंदजी का दृढ़ विश्वास था. अमेरिका (America) में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएं स्थापित कीं. अनेक अमेरिकन विद्वानों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया.


वे सदा खुद को गरीबों का सेवक मानते थे. भारत के गौरव को देश दुनियां तक पहुंचाने के लिए वह सदा प्रयत्नशील रहते थे. 4 जुलाई, सन्‌ 1902 को उन्होंने अलौकिक रूप से अपना देह त्याग किया. बेल्लूर मठ में अपने गुरु भाई स्वामी प्रेमानंद को मठ के भविष्य के बारे में निर्देश देकर रात में ही उन्होंने जीवन की अंतिम सांसें लीं. उठो जागो और तब तक ना रुको जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाए,स्वामी विवेकानंद के यही आदर्श आध्यात्मिक हस्ती होने के बावजूद युवाओं के लिए एक बेहतरीन प्रेरणास्त्रोत साबित करते हैं. आज भी कई ऐसे लोग हैं, जो केवल उनके सिद्धांतों को ही अपना मार्गदर्शक मानते हैं.


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