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कई सौ सालों में कोई एक महापुरुष ही धरती पर जन्म लेता है जो समाज में अलग राह बनाकर सर्वोपरि स्थान हासिल करता है. समाज में अपने हित को अलग रखकर समाज के लिए काम करने वाले विरले ही होते हैं. हमारे देश में ऐसे कई कवि, ऋषि, मुनि, महापुरुष आदि हुए हैं जिन्होंने अपना सारा जीवन समाज कल्याण के लिए अर्पित कर दिया. ऐसे ही एक महापुरुष हुए हैं संत कबीर. संत कबीर यानि गोस्वामी तुलसीदास के बाद संत-कवियों में सर्वोपरि.
‘कबीर’ भक्ति आन्दोलन के एक उच्च कोटि के कवि, समाज सुधारक एवं भक्त माने जाते हैं. समाज के कल्याण के लिए कबीर ने अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया. संता रामानंद के बारह शिष्यों में कबीर बिरले थे जिन्होंने गुरु से दीक्षा लेकर अपना मार्ग अलग ही बनाया और संतों में वे शिरोमणि हो गए.
कबीर का जन्म और विवादों का साया
एक ही ईश्वर में विश्वास रखने वाले कबीर के बारे में कई धारणाएं हैं. उनके जन्म से लेकर मृत्यु तक मतभेद ही मतभेद हैं. उनके जन्म को लेकर भी कई धारणाएं हैं. कुछ लोगों के अनुसार वे गुरु रामानन्द स्वामी के आशीर्वाद से काशी की एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे. ब्राह्मणी उस नवजात शिशु को लहरतारा(Lehartara) ताल के पास फेंक आई. उस बालक को नीरू (Niru) नाम का जुलाहा अपने घर ले आया. नीरू की पत्नी ‘नीमा’ (Nima) ने ही बाद में बालक कबीर का पालन-पोषण किया. एक जगह खुद कबीरदास ने कहा है :
“जाति जुलाहा नाम कबीरा, बनि बनि फिरो उदासी॥“
कबीर पन्थियों की मान्यता है कि कबीर का जन्म काशी में लहरतारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुआ. कुछ लोगों का कहना है कि वे जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी रामानंद(Swami Ramananda) के प्रभाव से उन्हें हिन्दू धर्म की बातें मालूम हुईं.
कबीर का विवाह कन्या “लोई’ के साथ हुआ था. जनश्रुति के अनुसार उन्हें एक पुत्र कमाल तथा पुत्री कमाली थी. कबीर का पुत्र कमाल उनके मत का विरोधी था. जिसके बारे में संत कबीर ने खुद लिखा है:
बूड़ा बंस कबीर का, उपजा पूत कमाल.
हरि का सिमरन छोडि के, घर ले आया माल.
कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे और यह बात उनके एक दोहे से पता चलती है जो कुछ इस प्रकार से है :
मसि कागद छूवो नहीं, क़लम गही नहिं हाथ.
जिस समय कबीर का जन्म हुआ था उस समय देश की स्थिति बेहद गंभीर थी. जहां एक तरफ मुसलमान शासक अपनी मर्जी के काम करते थे वहीं हिंदुओं को धार्मिक कर्म-काण्डों से ही फुरसत नहीं थी. जनता में भक्ति-भावनाओं का सर्वथा अभाव था. पंडितों के पाखंडपूर्ण वचन समाज में फैले थे. ऐसे समय मे संत कबीर ने समाज के कल्याण के लिए अपनी वाणी का प्रयोग किया.
कबीर धर्मगुरु थे. इसलिए उनकी वाणियों का आध्यात्मिक रस ही आस्वाद्य होना चाहिए, परन्तु विद्वानों ने नाना रूप में उन वाणियों का अध्ययन और उपयोग किया है. काव्य–रूप में उसे आस्वादन करने की तो प्रथा ही चल पड़ी है. समाज–सुधारक के रूप में, सर्व–धर्म समन्वयकारी के रूप में, हिन्दू–मुस्लिम–ऐक्य–विधायक के रूप में भी उनकी चर्चा कम नहीं हुई है.
कबीर की वाणी को हिंदी साहित्य में बहुत ही सम्मान के साथ रखा जाता है. दूसरी ओर गुरुग्रंथ साहिब में भी कबीर की वाणी को शामिल किया गया है. कबीर की वाणी का संग्रह ‘बीजक'(Bijak) नाम से है. बीजक पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली, अवधी, पूरबी, ब्रजभाषा आदि कई भाषाओं की खिचड़ी है. कबीरदास ने बोलचाल की भाषा का ही प्रयोग किया है. भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था. कबीर ने शास्त्रीय भाषा का अध्ययन नहीं किया था, पर फिर भी उनकी भाषा में परम्परा से चली आई विशेषताएं वर्तमान हैं.
हिन्दी साहित्य के हज़ार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक उत्पन्न नहीं हुआ. महिमा में यह व्यक्तित्व केवल एक ही प्रतिद्वन्द्वी जानता है, तुलसीदास. परन्तु तुलसीदास और कबीर के व्यक्तित्व में बड़ा अन्तर था. यद्यपि दोनों ही भक्त थे, परन्तु दोनों स्वभाव, संस्कार और दृष्टिकोण में एकदम भिन्न थे. मस्ती, फ़क्कड़ाना स्वभाव और सबकुछ को झाड़–फटकार कर चल देने वाले तेज़ ने कबीर को हिन्दी–साहित्य का अद्वितीय व्यक्ति बना दिया है.
एक ईश्वर की धारणा में विश्वास रखने वाले कबीर ने हमेशा ही धार्मिक कर्मकण्डों की निंदा की. सर्व–धर्म समंवय के लिए जिस मजबूत आधार की ज़रूरत होती है वह वस्तु कबीर के पदों में सर्वत्र पाई जाती है. कबीरदास एक जबरदस्त क्रान्तिकारी पुरुष थे.
जन्म के बाद कबीर की मृत्यु पर भी काफी मतभेद हैं. कुछ लोग मानते हैं कि कबीर ने मगहर में देह त्याग किया था और उनकी मृत्यु के बाद हिंदुओं और मुस्लिमों में उनके शव को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया था. हिन्दू कहते थे कि उनका अंतिम संस्कार हिन्दू रीति से होना चाहिए और मुस्लिम कहते थे कि मुस्लिम रीति से हो. इसी विवाद के दौरान जब शव से चादर हटाई गई तो वहां शव की जगह फूल मिले जिसे हिंदुओं और मुस्लिमों ने आपस में बांटकर उन फूलों का अपने अपने धर्म के अनुसार अंतिम संस्कार किया.
बेशक आज हमारे बीच कबीर नहीं हैं लेकिन उनकी रचनाओं ने हमें जीने का नया नजरिया दिया है. ऐसी मान्यता है कि अगर कोई व्यक्ति कबीर के दोहे के अनुसार अपनी जिंदगी को आगे बढ़ाता है तो निश्चय ही वह एक सफल पुरुष बन जाएगा.
कबीर के कुछ प्रसिद्ध दोहे
गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागूं पाँय .
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो मिलाय ॥1॥
बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर |
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर ||2||
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब |
पल में परलय होएगी, बहुरि करेगा कब ||3||
कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये,
ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये ..
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