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इस संसार में मां को भगवान से भी बढ़कर स्थान दिया गया है क्यूंकि वह ना सिर्फ हमें जन्म देती है बल्कि हमें पालपोस कर जीने और इस दुनिया में रहने के लायक बनाती है. मां अगर पल भर के लिए भी हमसे दूर हो जाए तो कितना बुरा लगता है ना और अगर खुदा ना करे वह मां बीमार हो जाए तो हम पर क्या बीतती है यह हम ही जानते हैं. लेकिन मां के प्रति यही प्रेम, भक्ति और भावना उस वक्त कहां चली जाती है जब हम प्रकृति पर अत्याचार करते हैं. एक मां तो हमें जन्म देती है पर यह प्रकृति भी तो एक मां ही है जो हमें ना सिर्फ जीने के लिए स्थान देती है बल्कि हमें भोजन भी देती है, इसी पृथ्वी से जीने के लिए हवा मिलती है.
आज विश्व भर में हर जगह प्रकृति का दोहन जारी है. कहीं फैक्टरियों का गंदा जल हमारे पीने के पानी में मिलाया जा रहा है तो कहीं गाड़ियों से निकलता धुंआ हमारे जीवन में जहर घोल रहा है और घूम फिरकर यह हमारी पृथ्वी को दूषित बनाता है. जिस पृथ्वी को हम मां का दर्जा देते हैं उसे हम खुद अपने ही हाथों दूषित करने में लगे रहते हैं.
पृथ्वी दिवस का इतिहास
प्रकृति पर बढ़ते अत्याचार और प्रदूषण की वजह से ग्लोबल वॉर्मिंग भी बढ़ी और विश्व स्तर पर लोगों को चिंता होनी शुरु हुई. आज ग्लोबल वार्मिंग यानी जलवायु परिवर्तन पृथ्वी के लिए सबसे बड़ा संकट बन गया है. 22 अप्रैल, 1970 को पहली बार इस उद्देश्य से पृथ्वी दिवस मनाया गया था कि लोगों को पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बनाया जा सके. विश्व पृथ्वी दिवस की स्थापना अमेरिकी सीनेटर जेराल्ड नेल्सन (Gaylord Nelson) के द्वारा 1970 में एक पर्यावरण शिक्षा के रूप में की गयी थी.
1970 से 1990 तक यह पूरे विश्व में फैल गया. 1990 से इसे अंतरराष्ट्रीय दिवस के रुप में मनाया जाने लगा और 2009 में संयुक्त राष्ट्र ने भी 22 अप्रैल को विश्व पृथ्वी दिवस के रुप में मनाने की घोषणा कर दी.
लेकिन मात्र एक दिन पृथ्वी दिवस के रुप में मना कर हम प्रकृति को बर्बाद होने से नहीं रोक सकते हैं. इसके लिए हमें बड़े बदलाव की जरुरत है. हवा में बातें तो सभी करते हैं लेकिन जमीनी हकीकत से जुड़ कर भी कुछ करना होगा तभी हम पृथ्वी मां के प्रति अपनी सच्ची श्रंद्धाजलि दे पाएंगे. आइए इस पृथ्वी दिवस पर शपथ लें कि आगे किसी कोई भी ऐसा कार्य नहीं करेंगे जिससे इसको नुकसान पहुंचे और अगर ऐसा कोई काम करना भी पड़े तो उसके नुकसान को पूरा करने के लिए जरूर उचित कदम उठाएंगे.
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