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भारतीय समाज में ऐसे कई समाज सुधारक हुए जिन्होंने समाज के ढ़ांचे को पूरी तरह बदल कर रख दिया. ऐसे ही समाज सुधारकों में से एक हैं आर्य समाज के संस्थापक और महान समाज सुधारक स्वामी दयानंद सरस्वती. महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती आर्य समाज के प्रवर्तक और प्रखर सुधारवादी सन्यासी थे. दयानंद सरस्वती ने भारतीय समाज को पिछडेपन से दूर करने के लिए पुराने रीति रिवाजों को बंद करने का आह्वान तो किया ही साथ ही उन्होंने ज्ञान से लिए संस्कृत भाषा का भी प्रयोग किया जो यह दिखाता है कि वह नए और पुराने में सामंजस्य बना कर रखते थे.
स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म गुजरात के भूतपूर्व मोरवी राज्य के एक गाँव में सन 1824 ई. में हुआ था. इनका प्रारंभिक नाम मूलशंकर तथा पिता का नाम अम्बाशंकर था. स्वामी दयानन्द बाल्यकाल में शंकर के भक्त थे. यह बड़े मेधावी और होनहार थे. ब्रह्मचर्यकाल में ही ये भारतोद्धार का व्रत लेकर घर से निकल पड़े.
गृह त्याग के बाद मथुरा में स्वामी विरजानंद के शिष्य बने. शिक्षा प्राप्त कर गुरु की आज्ञा से धर्म सुधार हेतु ‘पाखण्ड खण्डिनी पताका’ फहराई. स्वामी जी के जीवन की कुछ अहम घटनाएं घटी जिनकी उनके जीवन पर बेहद असर पड़ा.
चौदह वर्ष की अवस्था में मूर्तिपूजा के प्रति विद्रोह (जब शिवचतुर्दशी की रात में इन्होंने एक चूहे को शिव की मूर्ति पर चढ़ते तथा उसे गन्दा करते देखा) किया और इक्कीस वर्ष की आयु में विवाह का अवसर उपस्थित जान, घर से निकल पड़े. घर त्यागने के पश्चात 18 वर्ष तक इन्होंने सन्यासी का जीवन बिताया. इन्होंने बहुत से स्थानों में भ्रमण करते हुए कतिपय आचार्यों से शिक्षा प्राप्त की.
इस तरह बचपन से ही दयानंद सरस्वती ने आध्यात्म की तरफ रुख मोड़े रखा. धर्म सुधार हेतु अग्रणी रहे दयानंद सरस्वती ने 1875 में मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की थी. वेदों का प्रचार करने के लिए उन्होंने पूरे देश का दौरा करके पंडित और विद्वानों को वेदों की महत्ता के बारे में समझाया. स्वामी जी ने धर्म परिवर्तन कर चुके लोगों को पुन: हिंदू बनने की प्रेरणा देकर शुद्धि आंदोलन चलाया. सन् 1886 में लाहौर में स्वामी दयानंद के अनुयायी लाला हंसराज ने दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज की स्थापना की थी. हिन्दू समाज को इससे नई चेतना मिली और अनेक संस्कारगत कुरीतियों से छुटकारा मिला. स्वामी जी एकेश्वरवाद में विश्वास करते थे. उन्होंने जातिवाद और बाल-विवाह का विरोध किया और नारी शिक्षा तथा विधवा विवाह को प्रोत्साहित किया. उनका कहना था कि किसी भी अहिन्दू को हिन्दू धर्म में लिया जा सकता है. इससे हिंदुओं का धर्म परिवर्तन रूक गया.
समाज सुधारक होने के साथ ही दयानंद सरस्वती जी ने अंग्रेजों के खिलाफ भी कई अभियान चलाए. “भारत, भारतीयों का है’ यह अँग्रेजों के अत्याचारी शासन से तंग आ चुके भारत में कहने का साहस भी सिर्फ दयानंद में ही था. उन्होंने अपने प्रवचनों के माध्यम से भारतवासियों को राष्ट्रीयता का उपदेश दिया और भारतीयों को देश पर मर मिटने के लिए प्रेरित करते रहे.
उनके इस तीखे उत्तर से तिलमिलाई अँग्रेजी सरकार में उन्हें समाप्त करने के लिए तरह-तरह के षड्यंत्र रचे जाने लगे. स्वामी जी का देहांत सन् 1883 को दीपावली के दिन संध्या के समय हुआ. स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपने विचारों के प्रचार के लिए हिन्दी भाषा को अपनाया. उनकी सभी रचनाएं और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ मूल रूप में हिन्दी भाषा में लिखा गया. आज भी उनके अनुयायी देश में शिक्षा आदि का महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं.
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