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पं. दीनदयाल उपाध्याय न कोई बड़े नेता थे न ही कोई बड़े स्वतंत्रता सेनानी थे लेकिन उनके काम इतने बड़े थे कि लोग आज भी उन्हें उनकी महानता के लिए याद रखते हैं. प. दीनदयाल उपाध्याय महान चिंतक और संगठक थे. आरएसएस के एक अहम नेता और भारतीय समाज के एक बड़े समाजसेवक होने के साथ वह साहित्यकार भी थे.
उपाध्याय जी नितांत सरल और सौम्य स्वभाव के व्यक्ति थे. मथुरा में 25 सितंबर 1916 को जन्में पं. दीनदयाल उपाध्याय का बचपन घनी परेशानियों के बीच बीता. मात्र सात साल की आयु में उनके ऊपर से मां-बाप का साया हट गया था. लेकिन इस सब की फ्रिक किए बिना उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की. हालांकि पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने नौकरी न करने का निश्चय किया और राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के लिए काम करना शुरु कर दिया. संघ के लिए काम करते-करते वह खुद इसका एक हिस्सा बन गए और राष्ट्रीय एकता के मिशन पर निकल चले.
1953 में अखिल भारतीय जनसंघ की स्थापना होने पर उन्हें यूपी का सचिव बनाया गया. पं. दीनदयाल को अधिकांश लोग उनकी समाज सेवा के लिए याद करते हैं. दीनदयाल जी ने अपना सारा जीवन संघ को अर्पित कर दिया था. पं. दीनदयाल जी की कुशल संगठन क्षमता के लिए डा. श्यामप्रसाद मुखर्जी ने कहा था कि अगर भारत के पास दो दीनदयाल होते तो भारत का राजनैतिक परिदृश्य ही अलग होता.
पं. दीनदयाल की एक और बात उन्हें सबसे अलग करती है और वह थी उनकी सादगी भरी जीवनशैली. इतना बड़ा नेता होने के बाद भी उन्हें जरा सा भी अहंकार नहीं था. 11 फरवरी 1968 को मुगलसराय रेलवे यार्ड में उनकी लाश मिलने से सारे देश में शौक की लहर दौड़ गई थी. उनकी इस तरह हुई हत्या को कई लोगों ने भारत के सबसे बुरे कांडों में से एक माना. प. दीनदयाल राजनीति में सक्रिय होने के साथ साहित्य से भी जुड़े थे और इस क्रम में उनके हिंदी और अंग्रेजी के लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे. केवल एक बैठक में ही उन्होंने ‘चंद्रगुप्त नाटक’ लिख डाला था.
आज उनकी पुण्यतिथि पर हम सभी उनको भावभीनी श्रद्धाजंलि अर्पित करते हैं.
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